1980 में सई परांजपे की फिल्म स्पर्श में नसीरुद्दीन शाह ने एक अंधे किन्तु स्वाभिमानी ब्लाइंड स्कूल प्रिंसिपल का किरदार निभाया था, जिसे दया शब्द ही नहीं दया से भी नफरत थी. नेटफ्लिक्स पर हाल ही में रिलीज़ फिल्म ‘नज़र अंदाज़’ में कुमुद मिश्रा भी एक अंधे का किरदार निभा रहे हैं, लेकिन वो अपनी ज़िंदगी में इतनी आकांक्षाओं को लेकर चल रहे हैं कि वो अपने आप को अंधा मानते हैं या नहीं ये भी सोचना पड़ता है. छोटी फिल्म, कम अभिनेता, दमदार अभिनेता, और मीठा म्यूजिक, इन सबसे से सजी ये फिल्म किसी किसी दृश्य में ऐसा कमाल करती है कि गला भर आता है, आंखों में आंसूं और होठों पर मुस्कान चली आती है. मार्मिक फ़िल्में कम बनती है, इन्हें देखना चाहिए ताकि हमें इंसान होने का एहसास होता रहे.

विक्रांत देशमुख नए निर्देशक हैं. ये उनकी पहली फिल्म है. कलाकार देखिये – कुमुद मिश्रा, अभिषेक बनर्जी, दिव्या दत्ता और छोटे से रोल में राजेश्वरी सचदेव. कुमुद मिश्रा को हम सब रॉकस्टार में रणबीर कपूर के खैरख्वाह खुटाला भाई के तौर पर जानते हैं. रीवा, मध्य प्रदेश में जन्में कुमुद दरअसल थिएटर की पैदाइश हैं. उनका अभिनय देख कर लगता है कि उनका परमानेंट डायलॉग है ‘हां हो जायेगा’ यानि कोई भी रोल लेकर चले जाओ, उनका जवाब यही होगा ‘हां हो जायेगा’. छोटे कद के कुमुद की एक्टिंग रेंज बहुत बड़ी है. कॉमेडी, ट्रेजेडी, क्राइम, ड्रामा या कोई और जॉनर की फिल्म है, कुमुद सभी में घुस जाते हैं. नज़र अंदाज़ में वो एक अंधे की भूमिका में हैं. नसीर के बाद सिर्फ कुमुद ही एकलौते ऐसे अभिनेता हैं जिन्होंने स्क्रीन पर अंधे के रोल को जीवंत कर दिया है.

फिल्म की कहानी एकदम साधारण है. सुधीर (कुमुद मिश्रा) एक अंधे शख्स हैं. उनका घर उनकी नौकरानी भवानी (दिव्या दत्ता) के इशारे पर चलता है. एकदिन सुधीर को एक चोर मिलता है जिसका नाम वो रख देता है अली (अभिषेक बनर्जी) क्योंकि सुधीर के मन में एक तरंग है कि जब वो पुकारें ‘या अली मदद’ तो कोई हाज़िर हो जाये. इधर सुधीर अपने मन की तमन्नाओं को पूरा करने में व्यस्त है और इधर अली और भवानी उसकी प्रॉपर्टी हड़पने के चक्कर में हैं. तीनों के आपसी समीकरण इतने गुदगुदाते और दिल को छू जाने वाले पल ले आते हैं कि आप ज़िंदगी की खूबसूरत हकीकत से इश्क़ कर बैठते हैं. सुधीर का फलसफा, भवानी के हरियाणवी अक्खड़पन और अली की मुम्बइया टपोरीगिरी, लेकिन तीनों एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं. यही लाइफ की खूबसूरती है. सबसे सुन्दर दृश्य फिल्म में वो है जब सुधीर जो कि स्वयं अंधा है लेकिन वो एक दूसरे अंधे का हाथ पकड़ कर रास्ता पार करवा देता है. फिल्म में ऐसे कई मोमेंट्स हैं जहां फिलॉसॉफी या ज़िंदगी जीने के सही तरीकों का ज़िक्र किया गया है, और जब आप उन पर गौर करते हैं, तो लगता है वाकई ज़िंदगी होना तो ऐसी ही चाहिए.

अमिताभ बच्चन के कॉलेज किरोड़ीमल कॉलेज से पढ़े अभिषेक बनर्जी एक उम्दा अभिनेता हैं. फिल्म रंग दे बसंती में जब जब ऐलिस पैटन, कॉलेज के लड़कों का ऑडिशन कर रही होती है तो ऊटपटांग ऑडिशन देने वालों में एक अभिषेक बनर्जी भी बने थे. वहां से शुरू हुआ सफर अभिषेक को मुंबई ले आया और अभिनय के साथ साथ पापी पेट को पालने के लिए अभिषेक ने फिल्मों और सीरियल्स में कास्टिंग डायरेक्टर के तौर पर काम करना शुरू किया. आज वो भारत की सबसे सफल कास्टिंग एजेंसीज़ में से एक, “कास्टिंग बे” के मालिक हैं साथ ही अपने मिज़ाज को पसंद आने वाली फिल्म्स और वेब सीरीज में काम करते हैं. अली की भूमिका अभिषेक के अलावा शयद ही कोई और कर सकता था. दिव्या दत्ता तो पुराना चावल है. इसलिए हांड़ी में सही खुशबू और रंगत आ ही जाती है. हरयाणवी लड़का लड़की का किरदार वो बखूबी निभा जाती हैं.

नज़र अंदाज़ में ऐसा तो कुछ नहीं है जो इसे एक महान सिनेमा बनाएगा लेकिन ऐसा बहुत कुछ है जो आपको आपके इंसान होने पर फख्र महसूस कराएगा. सुन्दर सिनेमा है. कोई नकलीपन या वाहियात नाचगाना नहीं है. विशाल मिश्रा का संगीत, फिल्म की रूह से मिला हुआ है. हालांकि गाने पॉपुलर नहीं होंगे लेकिन एकदम फिल्म के मुताबिक हैं. राज शेखर के लिरिक्स सुनने के लिए थोड़ा ध्यान से सुन्ना पड़ता है और तब एहसास होता है कि अरे हां, गाने तो ऐसे भी हो सकते हैं. नज़र अंदाज़ कोई अवार्ड विनिंग सिनेमा नहीं है लेकिन कुमुद मिश्रा के अभिनय और लेखक ऋषि वीरमानी और सलीम शेख की लेखनी की दाद देनी होगी कि वो इतनी बारीकी से इतने गहन भावों को स्क्रिप्ट में ला पाए हैं. फिल्म थोड़ी बोझल है लेकिन पूरी फिल्म मज़ेदार है.

परिवार के लिए इस से बेहतर कोई फिल्म और नज़र नहीं आ रही है. प्रयास करें कि इसे देख डालें, बिना किसी बड़े स्टार की ये फिल्म रेटिंग के लिए सारे स्टार पाने का हक़ रखती है.

डिटेल्ड रेटिंग

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