फिल्म समीक्षा ‘शेरदिल’: मिमिक्री एक अद्भुत विधा है. किसी भी व्यक्ति की आवाज़ और हाव भाव की नक़ल करना और कुछ इस कदर करना कि देखने वाला उसे असली समझ ले. जब फिल्म के कलाकारों की मिमिक्री होती है तो दर्शकों को बहुत मज़ा आता है लेकिन इसका एक दुखद पहलू भी है. जब बहैसियत कलाकार किसी एक्टर की मिमिक्री होने लग जाये तो समझ लीजिये कि वो टाइपकास्ट हो चुका है और अब दर्शकों को उसके अभिनय में नवीनता कम नज़र आती है. ऐसे अभिनेता को तुरंत ही अपने काम का एनालिसिस कर लेना चाहिए और आने वाले समय में एक ही तरह के रोल करने से बचना चाहिए. नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ शेरदिल- द पीलीभीत सागा को देखकर ये राय पंकज त्रिपाठी को देने का मन करता है.

पिछले करीब 1 साल से कई स्टैंड अप आर्टिस्ट पंकज त्रिपाठी की बड़ी सफल मिमिक्री करने लगे हैं. शेरदिल में उनका अभिनय इतना घिसा हुआ लगता है कि उनके इस रोल को उठाकर उनकी किसी और फिल्म में रख दें तो शायद कोई विशेष फर्क न पड़े. पंकज त्रिपाठी के बारे में ये बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि पंकज एक खांटी देसी आदमी हैं और उनके अभिनय में चौराहे का शोर, गली का कोलाहल और ओटले की चुगलियां नज़र आती हैं. ऐसे अद्भुत कलाकार का रिपीटेटिव नज़र आना उनके करियर के लिए खतरे का पहला संकेत है. शेरदिल, सिर्फ शेरदिल लोग ही झेल सकते हैं.

जंगल से सटे गांव अक्सर मुसीबतों का सामना करते रहते हैं. जंगली जानवर उनकी फसल नष्ट कर देते हैं, हिंसक जानवर उनके पालतू पशुओं को अपना आहार बना लेते हैं. इन गांव वालों की किस्मत कुछ ऐसी होती है कि इनका होना तक संदेहास्पद होता है. सरकारी अमले की बेदिली और बेरुखी की वजह से गांवों को किसी तरह की कोई सहायता नहीं मिलती और जो मिल सकती है उसमें कानून-कायदे और कागज़ी कार्यवाही के इतने पहाड़ खड़े होते हैं कि ये अनपढ़ जंगली, इसे ईश्वर की सजा समझ कर छोड़ देते हैं. 2017 में पीलीभीत में ऐसा ही किस्सा सामने आया था जहां भयानक गरीबी और भुखमरी की वजह से गांव वालों ने अपने घर के बुज़ुर्गों को घर में छोड़कर शहर की और पलायन कर लिया था.

इरादा ये था कि जंगली जानवर जैसे शेर इन बुज़ुर्गों को खा जायेंगे तो सरकार से मुआवज़े के तौर पर मोटा पैसा वसूल लिया जाएगा क्योंकि किसी भी ग्रामीण उत्थान योजना से तो ये पैसे मिलने से रहे. निर्देशक श्रीजीत मुख़र्जी ने सुदीप निगम और अतुल कुमार राय के साथ मिलकर इन्हीं घटनों को आधार बनाकर ये फिल्म लिखी है. कहानी अपने आप में अनूठी है और दिल दहला देने वाली है. बतौर समाज हम अपने बुज़ुर्गों की उपयोगिता सिर्फ उनकी मौत से मिले मुआवज़े के तौर पर देखते हैं, ये शर्मनाक है, भयावह है और हमारी मानवीयता पर लगा एक कलंक है. लेकिन सच भी है.

कहानी में विश्वास करने के लिए हमें इन घटनाओं को करीब से देखने की ज़रूरत है. पंकज त्रिपाठी का निश्छल, परिस्थिति जन्य व्यंग्य इस बात की गंभीरता को हम जैसे कठोर हृदयों तक पहुंचा ही नहीं पाता. इतनी मोटी चमड़ी है आज के ओटीटी दर्शक की कि एसिड से कम उसकी संवेदनशीलता को कुछ नहीं जला सकता. फिल्म इस एसिड को नहीं बनाती बल्कि व्यंग्य का एक कोमल आवरण ओढ़कर सामने आती है जिस वजह से हमें इस कहानी का दुख समझ ही नहीं आता. पंकज का बेजा इस्तेमाल और उसके किस्म के अभिनय का वाहियात इस्तेमाल है ‘शेरदिल- द पीलीभीत सागा’.

एक मूर्खतापूर्ण आइडिया लेकर उसे अपनी सहजता से दर्शकों का पसंदीदा किस्सा बनाना ये पंकज की खासियत है लेकिन इस फिल्म में पंकज को ही मूर्ख बना दिया गया है. सरल व्यक्ति मूर्ख नहीं होता. पंकज जब पहली बार जंगल में शेर का शिकार बनने के लिए जाते हैं तो वो पूरा किस्सा और सीन बोरिंग हैं और नकली लगता है. नीरज कबी को जिम कॉर्बेट का देसी वर्शन बनाने की मूर्खता भी समझ से परे है. इन सब के बीच पंकज की नकली हिंदी, पीलीभीत के किस गांव में बोली जाती है ये भी जानने की इच्छा को मार देती है. यहां पंकज का दोहन करने का इरादा है उनके अभिनय का सही इस्तेमाल करने का नहीं.

फिल्म बनाने के पीछे जिस सच्चाई का आधार है वो कड़वी है लेकिन उस पर जो बना कर परोसा गया है वो पता नहीं किस स्वाद का समझा जाए. न ठीक से व्यंग्य या तंज़ है, न जंगल की आपबीती है, न कैंसर से मरते एक शख्स का त्याग है और न ही सरकार की अव्यवहारिक नीतियों पर कोई टीका. अकेले पंकज के दम पर पूरी फिल्म खींचना भी गलत है. श्रीजीत की ही फिल्म शाबाश मिठू इस से बेहतर है जब कि उस फिल्म में भी ड्रामा के नाम पर कुछ नहीं के बराबर था. श्रीजीत की बंगाली फिल्में बहुत सफल रही हैं और हिंदी फिल्में सिर्फ चर्चा में. नए किस्म की कहानी को दिखाने के लिए एक मिज़ाज पकड़ कर चलना होता है.

नदी की धरा की तरह चंचल कहानी अक्सर दर्शकों से कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं पर पाती. शेरगिल के पहले 20-25 मिनिट इतने बोझिल और मंथर गति से चलते हैं कि दर्शक ऊब जाता है. निर्देशक ये क्यों भूल जाते हैं कि अब ओटीटी पर दर्शक कुछ दूसरा देखने के लिए स्वतंत्र हैं. सिनेमेटोग्राफर तियश सेन अपनी ज़मीन तलाश रहे हैं. जंगल की खूबसूरती और परिस्थिति का दुःख, दोनों के बीच में तादात्म्य स्थापित करते करते फिल्म शूट की गयी है. प्रणय दासगुप्ता की समस्या भी इसी बात से उपजी है. क्या रखूं और क्या काटूं के ऊहापोह में एडिटिंग भी फिल्म को कोई शक्ल प्रदान नहीं करती. शांतनु मोइत्रा का संगीत एक अच्छा पहलू है लेकिन गीत सफल और पॉपुलर नहीं होंगे. हाल ही में दिवंगत हुए प्रसिद्ध गायक केके की ज़िन्दगी का आखिरी रिकार्डेड गाना “धूप पानी बहने दे” इस फिल्म में है.

फिल्म शेरदिल सिर्फ उन्ही लोगों के लिए है जो शेरदिल है. मज़ेदार एंटरटेनर देखने वालों के लिए इस फिल्म में कुछ नहीं है. पंकज त्रिपाठी को अपनी चिटपरिचित स्टाइल से मुक्ति पाने के लिए शेरदिल खुद देखनी चाहिए. जितने लोग पंकज के फैन हैं वो खुद भी इस फिल्म को देखकर दोबारा सोचेंगे. न देखेंगे तो कुछ नहीं होगा.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

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