फिल्म समीक्षा ‘पुष्पा- द राइज’: कुछ समय पहले रोहित शेट्टी की फिल्म ‘सूर्यवंशी’ देखकर निराशा हुई थी, क्योंकि रोहित की फिल्में भरपूर मनोरंजन देती हैं और सभी फिल्मी फार्मूला डालकर बनाई जाती हैं, जबकि सूर्यवंशी में कमजोर पटकथा ने पूरी फिल्म को डुबा मारा था. बॉक्स ऑफिस पर हश्र से परे हर फिल्म के निर्देशक से एक खास तरह की अपेक्षा तो रहती ही है. कोरोना की थर्ड वेव की मारामारी से मन में बढ़ते अवसाद से छुटकारा पाने के लिए निर्देशक सुकुमार ने एक बार फिर एक बेहतरीन फार्मूला फिल्म प्रस्तुत की है, जो पहले तेलुगू में रिलीज हुई और फिर उसके तमिल, कन्नड़ और मलयालम डब रिलीज हुए और अब उसका हिंदी डब वर्जन अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज किया गया है.

रिलीज के पहले से ही फिल्म चर्चा में हैं और अब हिंदी वर्जन आने की वजह से इसके दर्शकों की संख्या में कई गुना इजाफा होने लगा है. फिल्म की कहानी बरसों पुरानी है, लेकिन ट्रीटमेंट नया है इसलिए इसे देखकर आप दिल में उठ रही एक सफल फार्मूला फिल्म देखनी की तड़प को मिटा सकते हैं. 6 साल तक एक कॉलेज में प्रोफेसर रहने के बाद निर्देशक सुकुमार ने तेलुगू फिल्मों में लेखक और सहायक निर्देशक के तौर पर काम करना शुरू किया. 3-4 साल तक जूते घिसने के बाद उन्हें अपनी लिखी हुई फिल्म ‘आर्या’ बनाने का मौका मिला.

फिल्म के हीरो थे अल्लू अर्जुन. फिल्म हिट हुई और सुकुमार का सफर शुरू हो गया. कभी राम पोथीनेनी तो कभी महेश बाबू, कभी जूनियर एनटीआर तो कभी राम चरण के साथ हिट और फ्लॉप फिल्मों से भरे इस सफर में सुकुमार की आखिरी फिल्म थी ‘रंगस्थलम’ जो कि सुपरहिट थी. ‘पुष्पा’ में पहले महेश बाबू को हीरो के तौर पर लिया गया था लेकिन बाद में महेश बाबू ने सुकुमार के साथ क्रिएटिव डिफरेंस की कहानी सुनाकर फिल्म छोड़ दी. सुकुमार अपने पहले हीरो अल्लू अर्जुन के पास जा पहुंचे और करीब 12 साल बाद दोनों ने साथ काम निर्णय लिया.

फिल्म में तेलुगू सिनेमा के कई जाने पहचाने चेहरे थे और विलन की भूमिका में पहले विजय सेतुपति को साइन किया गया था जो कि डेट्स नहीं दे पाए और उनकी जगह आये मलयालम फिल्मों के गिरगिट यानी फहाद फसील. मजे की बात ये है कि फहाद ने न सिर्फ तेलुगू, बल्कि तमिल, कन्नड़, मलयालम और हिंदी भाषा के डब खुद ही किए हैं. हिंदी में अल्लू अर्जुन के लिए श्रेयस तलपड़े ने डब किया है. इस गलती का जिक्र करना बनता है, क्योंकि शेषाचलम जंगल, आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में हैं और वहां की तेलुगू बोलने का एक अलग ही एक्सेंट है. श्रेयस की डबिंग में पता नहीं क्यों मराठी के शब्दों का इस्तेमाल किया है, जो किरदार के बैकग्राउंड से मैच नहीं करता और उनकी आवाज भी अल्लू अर्जुन पर सूट नहीं कर रही है. तेलुगू में अल्लू अर्जुन की असली आवाज सुनिए तो आपको फर्क साफ नजर आ जाएगा.

फिल्म देखने में जो मजा आया है, वो छोटी मोटी गलतियों को चुभने भी नहीं देता. फिल्म का हीरो पुष्पा उर्फ पुष्पराज (अल्लू अर्जुन) गांव के एक धनी व्यक्ति की अवैध संतान है. पुष्पा दिलेर है, दबंग है, थोड़ा कमीना है और बहादुर है. जल्द से जल्द पैसा कमाने की उसकी चाहत में वो जंगल में लाल चन्दन काटने वाले मजदूरों में शामिल हो जाता है. अपनी दिलेरी से वो पुलिस का सामना कर के चन्दन पकड़े जाने से बचाता है और मालिक की नजर में चढ़ जाता है. हर बात में उसे अपनी इज्जत प्यारी होती है, इसलिए वो अपने जिगर और बहादुरी के दम पर तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते जाता है और चन्दन का सबसे बड़ा तस्कर बन जाता है.

अपने दुश्मनों का खात्मा करते-करते उसके अहम की कोई सीमा नहीं रहती तब उसका सामना होता है एसपी भंवर सिंह शेखावत (फहाद फसील) से. अपनी शादी के दिन पुष्पा उसे भी करारा जवाब देता है, लेकिन एसपी शेखावत उसे खत्म करनी की प्लानिंग करने लगता है. पुष्पा द राइज यानी पहला भाग यहीं खत्म होता है और पुष्पा द रूल के आगमन की सूचना भी यहीं मिल जाती है. कहानी में साथ चलते हैं पुष्पा और श्रीवल्ली (रश्मिका) का रोमांस, पुष्पा और उसकी मां (कल्पलता) के भावनात्मक सीन्स, रेड्डी भाइयों के साथ पुष्पा के काम करने की कहानी और उसकी तरक्की का सफर. कहानी एक लाइन में चलती है और एक एक सीन इतनी मेहनत से लिखा और बनाया गया है कि आपकी नज़र स्क्रीन से हट ही नहीं सकती.

पुष्पा का पहला भाग, करीब दो साल में बनकर तैयार हुआ है. पूरी यूनिट ने फिल्म पर कड़ा परिश्रम किया है. जंगलों में शूटिंग की गई है. कोविड की वजह से कभी कलाकार शूटिंग नहीं कर पाए, तो कभी शूटिंग करने की अनुमति नहीं मिली. आंध्र प्रदेश के जिन जंगलों में शूटिंग की गई है, वहां जाने के लिए पक्का या कच्चा रास्ता भी नहीं होता था. यूनिट ने पूरी मेहनत और लगन से अलग-अलग शेड्यूल में फिल्म की शूटिंग पूरी की. अल्लू अर्जुन ने इस फिल्म के लिए समय के साथ-साथ अपनी पूरी पर्सनालिटी को बदल लिया. चित्तूर जिले का एक्सेंट सीखने के अलावा उन्होंने अपने गेटअप पर काफी काम किया.

पोलैंड के प्रख्यात सिनेमेटोग्राफर मिरोस्लाव ब्रॉजेक को फिल्म की सिनेमेटोग्राफी का जिम्मा दिया गया. कैमरा वर्क देखकर दर्शक हतप्रभ हैं, जिस खूबसूरत अंदाज से कैमरा हर सीन को कैप्चर करता है वो देखकर इस कलाकार की प्रशंसा करने का मन करता ही है. मिरोस्लाव ने इसके पहले एक और तेलुगू फिल्म ‘गैंग लीडर’ की सिनेमेटोग्राफी की थी. एक्शन सीक्वेंस में उनका काम देखते ही बनता है और ड्रोन शॉट्स कब वाइड कैमरा शॉट में मिल जाते हैं पता ही नहीं चलता. फिल्म के रंग और टिंट के साथ साथ जंगल के अंधेरे को भी सिनेमेटोग्राफी ने जीवंत बना दिया है. ये फिल्म एक बहुत बड़ी फिल्म है और इसका हर एक फ्रेम इस बात की गवाही देता है.

फिल्म के एडिटर कार्तिक श्रीनिवास पहले ही निर्देशक सुकुमार के साथ काम कर चुके हैं और इन दोनों के बीच के कम्फर्ट लेवल को समझने के लिए पुष्पा की एडिटिंग देखनी चाहिए. कैसे कहानी की गति बनाए रखी जाए और कैसे हर महत्वपूर्ण सीन को फिल्म के नैरेटिव में इस अंदाज से रखा जाए कि कोई एक इमोशन फिल्म पर भारी न हो. फिल्म का कुछ हिस्सा अन्थोनी एल रुबेन ने भी एडिट किया है.

फिल्म को देखकर ऐसा लगता है कि फिल्म सिर्फ और सिर्फ अल्लू अर्जुन के लिए ही बनाई गई है. रश्मिका फिल्म की हीरोइन हैं और नहीं भी होती तो कोई फर्क नहीं पड़ता. उनका रोल बहुत ही छोटा है और उनके होने से सिवाय कुछ गानों और एक अदद लड़ाई के कुछ नहीं होता. अल्लू का किरदार एकदम ताली और सीटी वाली ऑडियंस के हिसाब से रचा गया है. न बाल कटवाता है और न ही दाढ़ी, न नहाता है, न कपड़े बदलता है, मैला कुचैला, बीड़ी या सिगरेट पीता, अनिल कपूर की तरह एक कन्धा ऊंचा कर के घूमता रहता है.

एक सीधे से बच्चे से वो गांव का गुंडा या लड़ाका कब बन जाता है ये फिल्म में नहीं दिखाया गया है. बड़े ही देसी तरीके से वो स्मगलिंग करता है लेकिन पुलिस के हत्थे नहीं चढ़ता है जिस वजह से तस्करों में उसकी वैल्यू बढ़ती जाती है. बाकी किरदारों में कल्पलता और अनुसूया भारद्वाज के किरदार ठीक से बने हैं. विलन ढेरों हैं इसलिए किसी एक का नाम याद रखना मुश्किल है लेकिन फहाद की एंट्री के बाद सब कुछ भूल जाना पड़ता है. सिर्फ एक गाने के लिए फिल्म में आयी समांथा रुथ प्रभु ने अपने हॉट अंदाज़ से पूरा ध्यान अपनी और खींच लिया है.

फिल्म में एक्शन जबरदस्त है. राम, लक्ष्मण और पीटर; तीनों ही तमिल और तेलुगू फिल्मों में धांसू एक्शन के लिए जाने जाते हैं. पुष्पा में उसकी कोई कमी नहीं है. 6 मिनट के एक एक्शन सीक्वेंस पर करीब 6 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं. संगीत का डिपार्टमेंट हमेशा की तरह सुकुमार के भरोसेमंद देवी श्री प्रसाद को दिया गया है. तेलुगू में गाने अच्छे लगते हैं, लेकिन हिंदी में गानों का मजा किरकिरा हो गया है. लिरिक्स समझने के लिए खासी मेहनत करनी पड़ती है. वैसे भी इस फिल्म के गाने ‘देखने’ लायक ज्यादा हैं. पुष्पा सुपरहिट है. नाम से लगता है कि फिल्म फ्लावर होगी, लेगी लेकिन फिल्म फायर है. लम्बाई की चिंता न करते हुए देखिये. मास एंटरटेनर फिल्म किस तरह बनाई जाती हैं वो समझिये. सैकड़ों बार बन चुकी कहानी पर किस तरह नए स्टाइल से फिल्म बना सकते हैं ये सुकुमार से सीखिए.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

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