फिल्म समीक्षा ‘मधगजा’: अधिकांश कन्नड़ फिल्में मसाले से भरपूर होती हैं. एकदम मास एंटरटेनर की श्रेणी में. काफी समय से ये ही चलता आ रहा है, इसलिए कई बार अच्छी कहानियां देखने को नहीं मिलती, लेकिन हाल ही में अमेजन प्राइम वीडियो पर कन्नड़ फिल्म “मदगजा” रिलीज़ की गई है जो एक बढ़िया मसाला फिल्म तो है ही साथ में काफी विश्वसनीय सी भी लगती है. कभी-कभी बुद्धिमान फिल्मों से राहत पाने के लिए इस तरह की फिल्म देखने में एक अलग किस्म का आनंद है. देखिए क्योंकि मस्ताने हाथी की तरह ये फिल्म भी एकदम मस्त सी लगती है.

कहानी एकदम फार्मूला है. एक गांव का लीडर अच्छा आदमी है भैरव दुरई (जगपति बाबू) और अपने गांव वालों के लिए वो हमेशा हक़ की आवाज़ उठाता है. वहीं दूसरे गांव का लीडर एक गुंडा है वो हमेशा ज़मीन हड़पने, पानी रोकने, मार पीट करने के काम करता रहता है. दोनों के बीच चल रही खूनी जंग से परेशान, भैरव की पत्नी अपने बेटे को इन सबसे दूर रखना चाहती है और इस वजह से वो उसे एक फ़कीर के हवाले कर देती है. ये फ़कीर उसे बनारस ले जाकर बड़ा करता है और साल में एक बार भिक्षा मांगने के बहाने वो उसकी मां को पूरी रिपोर्ट देता है. भैरव का बेटा बड़ा होकर सूर्या मदगजा (श्रीमुरली) बनता है और बनारस में विवादस्पद प्रॉपर्टी खरीदने बेचने का काम करता है और इसलिए गुंडों की धुलाई भी करता है. किस्मत उसे अपने पैतृक गांव ले जाती है और धीरे-धीरे उसे अपने बीते हुए कल की बातों का पता चलता है और वो फिर अपने पिता की और से लड़ते हुए गुंडों का खात्मा करता है, गांव वालों को उनका हक दिलवाता है और इन बीच में एक लड़की से प्रेम भी कर लेता है. अंत भला तो सब भला होता है.

मुख्य कलाकार श्री मुरली हैं, जिन्होंने एक टिपिकल मसाला फिल्म के हीरो की तरह ज़बरदस्त एक्शन का प्रदर्शन किया है. फिल्म की कहानी शंकर रमन, सुरेश अरुमुगम, और महेश विश्वकर्मा ने लिखी है और डायलॉग एम चंद्रमौली ने. फिल्म की पटकथा कसी हुई है, एकाध गाने वाले मसले को छोड़ दिया जाए तो फिल्म एकदम सीध में और लगातार चलती रहती है. कोई भी पैरेलल ट्रैक न बनाकर एक्शन और रिवेंज फिल्म का व्याकरण सही रखा गया है. एडिटिंग के लिए विनोद कुमार, के हर्षवर्धन और आरकेश गौड़ा की टीम ने फिल्म की गति बनाये रखी है और मुख्य एडिटर हरीश कोम्मे ने कोई कड़ी छूटने नहीं दी है. कहानी बहुत पुरानी है इसलिए इसकी रफ़्तार और एक्शन से ही कुछ मजमा लगाया जा सकता था. एक्शन भी तीन लोगों की टीम राम लक्ष्मण, अम्ब्रेव और अरुण राज ने संभाला है. अधिकांश कन्नड़ फिल्मों की ही तरह ग्रेविटी का मज़ाक उड़ाते स्टंट रखे गए हैं, लेकिन मसालेदार फिल्म में इसकी अपेक्षा करना गलत नहीं हैं.

निर्देशक महेश कुमार की यह दूसरी फिल्म है और उन्होंने काफी अच्छी फिल्म बनायीं है. किरदारों पर दर्शक भरोसा कर लें तो निर्देशक का काम आसान हो जाता है. ऐसी कहानी जिसमें नया तो कुछ भी नहीं है फिर भी कलाकारों से काम करवा लेना कि वो अजीब न लगें, ये अपने आप में कठिन काम है. महेश ने फिल्म में आसानी से हर अतिरेक को जस्टिफाई कर लिया है.

एक काल्पनिक से गांव से वाराणसी के डोम और फिर उन्हीं अस्सी घाटों से गुज़रते हुए फिर अपनी जड़ों तक लौटने की हीरो की कहानी में श्रीमुरली के किरदार विश्वास करने लायक लगता है. जो इमोशंस लोगों को रुला सकते हैं उन्हें नियत्रण में रखा गया है ताकि कहानी के केंद्र से भटका न जाए. जगपति बाबू अक्सर विलन बनते हैं, लेकिन इस बार उनका किरदार काफी बेहतर है और अपने अनुभव के मद्देनज़र उन्होंने इस में काफी मेहनत की है. जगपति बाबू के किरदार थोड़ा अलग लगा है. सूर्या की मां के किरदार में देवयानी ने भी काफी संयत अभिनय किया है. फिल्म में फालतू डायलॉग, मसालेदार गाने, फालतू के ताली पीटू एक्शन सीन से बचा गया है. लव स्टोरी में भी एक ही गाना है. रवि बसरूर का संगीत तो अच्छा है ही, साथ ही फिल्म के बैकग्राउंड स्कोर पर भी काफी मेहनत की गयी है.

फिल्म के दो तीन मुख्य आकर्षण हैं, एक है इसका रन टाइम जो कि सिर्फ 130 मिनिट है जिस वजह से देखने में मज़ा आता है. दूसरा, श्री मुरली और अशिका की जोड़ी तो अच्छी है ही, जगपति बाबू और देवयानी ने भी कुछ सीन्स में दर्शकों को प्रभावित किया होगा. और सबसे अच्छी बात फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर. मसाला फिल्म देखने के शौकीनों के लिए एकदम मुफ़ीद फिल्म है.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

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