फिल्म समीक्षा ‘मानाडु’: फिल्मों में हालांकि टाइम लूप यानी समय चक्र में फंसना कम दिखाया जाता है, लेकिन कुछ अंग्रेजी फिल्मों (ग्राउंडहॉग डे, फिफ्टी फर्स्ट डेट्स इत्यादि) ने इस वैज्ञानिक घटना को समझाने की कोशिश की है. सोनी लिव पर हाल ही में रिलीज़ तमिल फिल्म ‘मानाडू’ यानी कि कांफ्रेंस में इस कॉन्सेप्ट को लेकर एक बड़ी ही रोचक और हैरान कर देने वाली कहानी रची गई है. मंजे हुए कलाकार हों, तो फिल्म की कहानी में चार चांद लग जाते हैं, लेकिन कहानी और उसकी एडिटिंग ही शानदार हो तो दर्शक सीट से उठना भी पसंद नहीं करते. मानाडू कुछ इसी तरह की कहानी है, इसका एक भी दृश्य मिस करने से कहानी की समझ में फर्क पड़ सकता है. ज़बरदस्त फिल्म को ज़रूर देखना चाहिए.

लेखक और निर्देशक वेंकट प्रभु ने अब तक जितनी भी फिल्में बनाई हैं, वे सभी दर्शकों द्वारा पसंद की गई हैं. उनकी अधिकांश फिल्में कॉमेडी या रोमांटिक रही हैं. इस बार उन्होंने साइंस फिक्शन में कदम रखा है. फिल्म मेकिंग के क्राफ्ट पर वेंकट प्रभु की पकड़ का एक नया नमूना है ये फिल्म (FILM REVIEW ‘Maanaadu’). किसी ज़माने में पृथ्वी का केंद्र होता था मध्य प्रदेश का शहर उज्जैन और वहां का बहुचर्चित मदिर काल भैरव मंदिर.

अभिनेता सीलाम्बरासन स्वयं शिव के भक्त हैं इसलिए उन्होंने इस कहानी में सबसे रोचक रोल निभाया है. वे बने हैं अब्दुल ख़ालिक़ जो कि बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने के बाद फैले दंगों के दौरान पैदा हुए थे. उनके माता पिता दंगों में भाग कर मंदिर जा पहुंचे थे जहां एक हिन्दू पुजारी ने उनकी जान बचायी और पुजारी की पत्नी की मदद से उनका जन्म हुआ. जैसे उज्जयनी के राजा विक्रम और बेताल की कहानी में समय चक्र दिखाया गया है कि हर बार बेताल को विक्रम पकड़ता है और बेताल उसे कहानी सुनाता है जिसके अंत में एक प्रश्न का जवाब देना होता है. विक्रम जवाब में बोलता है और बेताल फिर से उड़ के पेड़ पर बैठ जाता है. ठीक उसी तरह अब्दुल भी एक टाइम लूप में फंस जाता है.

अब्दुल दुबई से हिंदुस्तान आ रहे होते हैं. उनके एक मित्र की गर्लफ्रेंड की शादी से उस गर्लफ्रेंड को किडनैप कर के रजिस्ट्रार के ऑफिस में उनकी शादी करवाने के लिए. किडनैप के बाद भागते वक़्त उनकी कार एक शाख से टकरा जाती है, पुलिस आ जाती है और अब्दुल और उनके मित्रों को डीसीपी धनुष्कोडी (एस सूर्या) के पास ले जाती है. पूरे मामले से बचने के लिए अब्दुल को एक पोलिटिकल रैली में जाकर चीफ मिनिस्टर को गोली मारने का काम दिया जाता है. अपने दोस्तों की जान बचाने के लिए अब्दुल ये काम करने को तैयार होता है और जैसे ही बन्दूक निकालता है, चीफ मिनिस्टर को गोली लगती है और पुलिस आकर अब्दुल को घेर लेती है और उसे गोलियां मार दी जाती है. अगले ही पल अब्दुल की आंख खुलती है, तो वो अपने आप उसी फ्लाइट में पाता है जिस से वो पहले आते हुए दिखाया गया है.

यहां से टाइम लूप की शुरुआत होती है और अब्दुल को ये समझ आता है कि डीसीपी और एक अन्य राजनीतिज्ञ परंथमन मिल कर चीफ मिनिस्टर को मारने की योजना रच रहे हैं ताकि उनकी कुर्सी हड़पी जा सके. इसको रोकने का बस एक ही तरीका है कि अब्दुल समय में पीछे जाकर इस घटना के षडयंत्र को समझ सके और सभी सूत्रों को जोड़ कर प्लान को फेल कर दे. चीफ मिनिस्टर के साथ साथ अपने मित्रों की भी जान बचा सके और दुश्मनों को ख़त्म कर सके. पूरी फिल्म में इसी टाइम लूप में अब्दुल को थोड़ा थोड़ा पीछे जा कर पूरी गुत्थी को सुलझाते हुए दिखाया गया है. एक टाइम लूप में अब्दुल का खून और डीसीपी धनुष्कोडी का खून मिल जाता है और अब डीसीपी भी उसी टाइम लूप में फंस जाता है. यहां से कहानी दो गुनी रोचक हो जाती है. आखिर में हीरो को जीतना है लेकिन कैसे वो एक एक कदम पीछे जा कर, हर बार चंद सेकण्ड्स बचा बचाकर वो मुख्यमंत्री को बचाते हैं, ये कहानी 2 घंटे और 27 मिनिट के एकदम कसे हुए स्क्रीन प्ले में ढाल कर प्रस्तुत की गयी है. एक बार भी सीट से उठने की गुंजाईश नहीं होती.

सीलाम्बरासन एक फ़िल्मी परिवार से हैं लेकि काफी मुंहफट किस्म के अभिनेता माने जाते रहे हैं. पता नहीं किस धुन में उन्होंने तमिल अभिनेता धनुष पर टिप्पणियां करना शुरू कर दी थी. दोनों के बीच काफी गलत फहमियां रहीं और अभिनय से ज़्यादा सीलाम्बरासन को अपने व्यवहार की वजह से इंडस्ट्री में नापसंद किया जाता रहा है. धनुष की पहल पर एक बार दोनों ने बैठ कर आपसी मतभेदों को समझने की कोशिश की और फिर दोनों के बीच चला आ रहा तनाव ख़त्म हुआ. सीलाम्बरासन ने इस फिल्म में अब्दुल ख़ालिक़ की भूमिका अदा की है. किरदार में अभिनय की गहराई दिखाने का मौका नहीं था. क्योंकि कहानी में ही इतनी गहराई थी. कोई और भी अभिनेता इस भूमिका को निभा लेता लेकिन एक्शन दृश्यों में सीलाम्बरासन ने अच्छा प्रदर्शन किया है. फिल्म के एंटागोनिस्ट यानि डीसीपी धनुष्कोडी की भूमिका एक अत्यंत प्रतिभावान अभिनेता एसजे सूर्या ने निभाई है. सूर्या एक सफल निर्देशक हैं इसलिए उन्हें डायरेक्टर की डिमांड्स जल्दी समझ आ जाती हैं. उनके किरदार का ग्राफ बहुत अच्छे से रचा गया है. कुछ दृश्यों को छोड़ दें तो उनका चेहरा काफी खूंखार नज़र आता है. एक ओवर कांफिडेंट पुलिसवाले के रोल में उन्होंने गज़ब किया है.

फिल्म में सीलाम्बरासन कोई अदृश्य शक्ति से भरा महामानव नहीं बने हैं इसलिए कहानी अच्छी लगती है. उन्हें अचानक कोई दिव्या शक्ति आ कर ये नहीं बताती की वो एक टाइम लूप में हैं. वो एक एक घटना को समझने की कोशिश करते हैं और धीरे धीरे समझ पाते हैं कि असल कहानी है क्या? हर बार कोई नया राज़ समझने के लिए अब्दुल को मरना पड़ता है और कहानी लौट कर फिर फ्लाइट में बैठे अब्दुल पर जा पहुंचती है. ये अद्भुत और रोमांचक है. जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है अब्दुल ये समझ जाता है कि उसके मरने से कहानी रुक जाएगी तो वो इस ट्रम्प कार्ड का इस्तेमाल करने लगता है. वहीं धनुष्कोडी को भी टाइम लूप समझने में काफी देर होती है लेकिन वो किरदार भी कोई जादू नहीं दिखाने लगता है.
चीफ मिनिस्टर के साथी की हत्या को रोकने के लिए अब्दुल द्वारा किये गए प्रयासों वाले सीन कमाल बने हैं. कहानी की आत्मा वहीं समझ आती है. निर्देशक वेंकट प्रभु ने इसे एक लॉजिकल फिल्म बनाने की कोशिश की है और वे काफी हद तक कामयाब भी हुए हैं. कोई अप्रत्याशित घटना, कोई जादू, या टाइम लूप का बेजा इस्तेमाल, बिना बात की कॉमेडी से हट कर वे कहानी को मुख्यमंत्री की हत्या पर ले जाते रहे हैं. इस काम में उनके साथ उनकी लेखनी और उनका ब्रम्हास्त्र हैं एडिटर प्रवीण केएल। हर बार अब्दुल की हत्या, चीफ मिनिस्टर को गोली लगना और फिर कहानी की एक परत और खुलना, एडिटर ने इस प्याज़ के छिलके बड़ी ही महीन तरीके से उतारे हैं, बिना दर्शकों को रुलाये.

संगीत युवान शंकर राजा का है. एक लाजवाब गाना है मर्ज़ियां जो कि सुनने में बहुत ही मधुर है. एक और गाना है जो प्रमोशनल सॉन्ग था. बाकी सब इंस्ट्रूमेंटल थीम हैं. मानाडू थीम एकदम दिमाग में बस जाती है. टाइम लूप पर बनी एक और तमिल फिल्म “जैंगो” के बाद एक भारत की दूसरी फिल्म है मानाडू जो कि समय चक्र के बार बार उसी जगह पर आ कर अटकने को एकदम एंटरटेनिंग तरीके से इस्तेमाल करती नज़र आती है. फिल्म में कुछ चुटीले डायलॉग हैं लेकिन इन डायलॉग में हॉलवुड की कई फिल्मों का ज़िक्र है जो टाइम लूप और टाइम वार्प पर बनी हुई हैं. निर्देशक वेंकट ने एक ही झटके में हॉलीवुड को धन्यवाद भी किया और अपनी फिल्म को उस रेट रेस से दूर भी रखा. फिल्म थोड़ी सी लम्बी है लेकिन उसमें किसी की गलती नहीं है. इसे देखा जाना चाहिए. हिंदुस्तान में ऐसी फिल्में बन सकती हैं, ये जानने के लिए.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

टैग: छवि समीक्षा

Source link

By admin

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *