नई दिल्‍ली. सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान कपिल देव द्वारा पशु क्रूरता निवारण अधिनियम के प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया है. नवंबर 2022 में दिल्ली में एक आवारा गर्भवती कुत्ते को प्रताड़ित करने और मारने की चौंकाने वाली घटना के बाद कपिल देव ने दो अन्य एक्टिविस्ट के साथ याचिका दायर की थी. याचिका में देश भर में पशु क्रूरता के कई कथित मामलों पर प्रकाश डाला गया और तर्क दिया गया है कि इसे लेकर बने कानून अपर्याप्त है. याचिकाकर्ताओं ने जानवरों के साथ सम्मानजनक व्यवहार सुनिश्चित करने और पशु क्रूरता की शिकायतों में प्रभावी अभियोजन के लिए दिशानिर्देश भी मांगे थे. याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि पशु क्रूरता के लिए निर्धारित दंड अपर्याप्त हैं और इसलिए उन्होंने पशु क्रूरता निवारण अधिनियम की धारा 11(1) और भारतीय दंड संहिता की धारा 428 और 429 की संवैधानिकता को चुनौती दी है.

याचिकाकर्ता की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट अमन लेखी ने कोर्ट को बताया कि आईपीसी की धारा 428 के अनुसार जानवर को मारने या अपंग करने के अपराध में 10 रुपए के जुर्माने के साथ कारावास की सजा हो सकती है, जिसे दो साल तक बढ़ाया जा सकता है. हालांकि, आईपीसी की धारा 429 के अनुसार, वही अपराध एक अवधि के लिए कारावास जो दंडनीय है साथ ही 50 रुपए के जुर्माने के साथ सजा पांच साल तक बढ़ाया जा सकता है हालकि वकील कोर्ट में दलील दी कि पशु क्रूरता के एक ही अपराध के लिए पशु के व्यावसायिक और उपयोगिता मूल्य के आधार पर अलग-अलग दंड तय करना पूरी तरह से अनुचित और मनमाना है.

‘जानवरों को भी पीड़ा से बचने का अधिकार’
कोर्ट में वकील ने कोर्ट के पुराने आदेश का भी हवाला दिया जहां यह कहा गया था: “जानवरों को भी इंसानों की तरह अत्याचार न करने और अनावश्यक दर्द या पीड़ा न देने का अधिकार है. उन अधिकारों के उल्लंघन के लिए दंड महत्वहीन है, क्योंकि ये कानून मनुष्यों द्वारा बनाए गए हैं. धारा 11(1) में निर्धारित सजा अपराध की गंभीरता के अनुरूप नहीं है, इसलिए अधिनियम के मूल उद्देश्य और लक्ष्य को पराजित करते हुए सजा मुक्त करने के अधिकार का उल्लंघन किया जा रहा है.

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कानून को दी गई चुनौती
वकील ने कोर्ट में दलील दी कि अधिनियम की धारा 11(3) (बी) और (सी) में आवारा कुत्तों को ऐसे अन्य तरीकों से नष्ट करने और किसी भी जानवर को भगाने या नष्ट करने का प्रावधान है. उन्होंने आगे पीसीए 1960 की धारा 9 (एफ) का उल्लेख किया कि पशु कल्याण बोर्ड को “यह सुनिश्चित करने के लिए सभी कदम उठाने होंगे कि अवांछित जानवरों को स्थानीय अधिकारियों द्वारा नष्ट कर दिया जाए.” ऐसा करने में, अधिनियम स्वयं उपयोगितावादी और अवांछित जानवरों के बीच एक अनुचित वर्गीकरण बनाता है और उनके जीवन को मूल्य देता है. याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि पीसीए, 1960 की धारा 11 (3) पशुपालन प्रक्रियाओं जैसे कि सींग निकालना, बधियाकरण, नाक से रस्सी निकालना और जानवरों की ब्रांडिंग के लिए अपवाद बनाती है. हालांकि, जानवरों को आघात पहुंचाए बिना इन प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए नियमों या विनियमों के माध्यम से कोई दिशानिर्देश निर्धारित नहीं किए गए हैं.

सीधे सुप्रीम कोर्ट क्‍यों आए याचिकाकर्ता
कोर्ट ने जब पूछा कि याचिकाकर्ता ने सीधे सुप्रीम कोर्ट जाने का विकल्प क्यों चुना, तो वकील ने जवाब दिया कि देशभर में अधिनियम के कार्यान्वयन से संबंधित राहतें मांगी गई थीं और यह किसी विशेष हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र तक सीमित नहीं है. उन्होंने आगे कहा कि यह मुद्दा केंद्रीय अधिनियम के दुरुपयोग से संबंधित है, जिसके परिणाम पूरे भारत में हैं. उन्होंने कहा कि कानून के अनुप्रयोग में, जानवरों को केवल वाद्य मूल्य तक सीमित कर दिया गया है. उदाहरणों का हवाला देते हुए, वकील ने तर्क दिया कि न्यायालयों ने उस अंतर को भरने के लिए हस्तक्षेप किया है जहां कानून अपर्याप्त है और विधायिका अपने पैर खींच रही है.

वकील की दलीलों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उसे मामले पर विचार करने में आपत्ति है क्योंकि हाईकोर्ट भी राहत देने में समान रूप से सक्षम हैं. मामले में कुछ दलीलों के बाद, याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका वापस लेने की मांग की, जिसके बाद वह हाई कोर्ट में अर्जी दाखिल कर सके . कोर्ट ने सभी पक्षों की दलील सुनने के बाद याचिका को खारिज किया.

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