पं.श्याम नारायण पांडेय का जन्म वर्ष 1907 में उत्तर प्रदेश के डुमरांवा गांव (जिला मऊ) में हुआ था. अपनी शुरुआती शिक्षा खतम करके वे आगे की पढ़ाई के लिए काशी (वाराणसी) आ गए और काशी विद्यापीठ से हिंदी में साहित्याचार्य किया. पांडेय जी ने अपने जीवन काल में चार उत्कृष्ट महाकाव्यों की रचना की, जिनमें ‘हल्दीघाटी’ और ‘जौहर’ काव्य सर्वाधिक लोकप्रिय हुए. ‘हल्दीघाटी’ में महाराणा प्रताप के जीवन और ‘जौहर’ में रानी पद्मावती के आख्यान हैं. गौरतलब है कि ‘पद्मावती’ को पहली बार ‘जौहर’ से ही लोक-ख्याति मिली थी.

अपनी ओजस्वी वाणी के कारण पं.श्याम नारायण पांडेय कवि सम्मेलन के मंचों पर अत्यधिक लोकप्रिय हुए. साल 1991 में 84 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया. मृत्यु के तीन वर्ष पूर्व ही आकाशवाणी गोरखपुर में अभिलेखागार हेतु उनकी आवाज में उनके जीवन के संस्मरण रिकॉर्ड किए गए. उनकी आवाज मरते दम तक चौरासी वर्ष की आयु में भी वैसी ही कड़कदार और प्रभावशाली बनी रही जैसी युवावस्था में थी.

कवि-साहित्यकार-पत्रकार ‘जयप्रकाश त्रिपाठी’ के पास पं.श्याम नारायण पांडेय और उनकी कविताओं से जुड़ी हुई अनगिनत खट्टी-मीठी यादें हैं. पांडेय जी को याद करते हुए वह कहते हैं, “लगभग तीस साल पहले ‘हल्दीघाटी’ के महाकवि पं.श्याम नारायण पांडेय के साथ मुंबई जाना हुआ था. चौपाटी पर कवि सम्मेलन के अगले दिन उनकी कविताओं की रिकार्डिंग होनी थी. उस समय मोबाइल का जमाना नहीं था, सो रामावतार त्यागी का दूत बार-बार पांडेयजी से संपर्क साधने आ टपकता कि चलिए, रिकार्डिंग का समय हो रहा है. इससे पांडेयजी को बड़ी झुझलाहट होती. इसकी एक और वजह थी, उन दिनो मंचों पर छाई रहीं कवयित्री माया गोविंद ‘पांडेयजी’ को उनके सुमित्र ‘हरिवंश राय बच्चन’ से मिलवाने ले जाना चाहती थीं. इन्हीं दिनों उनके पुत्र ‘अमिताभ बच्चन’ ‘कुली’ के फिल्मांकन में घायल होने के बाद ‘प्रतीक्षा’ में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे. माया गोविंद के साथ उनके दामाद भी थे, जो बच्चन जी से मिलने के बहाने अमिताभ बच्चन से मिलना चाहते थे. पांडेयजी बार-बार मुझसे पूछते कि क्या करें? मेरा विचार था कि पहले रिकार्डिंग हो जाए, फिर समय बचता है तो बच्चनजी से मिलने चलें क्योंकि रामावतार त्यागी उन दिनों साहित्यिक विरासत के तौर पर देश के प्रमुख कवि-साहित्यकारों के शब्द उनकी जुबानी रिकॉर्ड करा रहे थे. भीतर से मन तो मेरा भी था कि बच्चन जी से मुलाकात हो जाए, क्योंकि पांडेयजी से उनकी अंतरंग मित्रता के दिनों की अनेकशः कहानियां सुन रखी थीं, किंतु तब तक मुलाकात नहीं हुई थी. इस बीच बच्चन जी के फोन आते रहे कि ‘पांडेय कब पहुंचोगे, मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं!’ अंततः पांडेयजी पहले बच्चन जी से मिलने पहुंचे, साथ में माया गोविंद और उनके दामाद सहित हम तीनों भी.”

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए जय प्रकाश त्रिपाठी कहते हैं, “उस दिन इतना अप्रिय जरूर हुआ कि अमिताभ मिले नहीं. ज्योंही हम ‘प्रतीक्षा’ के मुख्य द्वार में प्रविष्ट हुए, अमिताभ परिसर के मंदिर से निकलकर सीधे अपने विश्राम कक्ष में चले गए. फिर दूसरों लोगों की लाख मिन्नत पर भी मिलने नहीं निकले. वहां से हम पहुंचे रामावतार त्यागी के साथ रिकॉर्डिंग रूम. श्याम नारायण पांडेय ‘हल्दीघाटी’ का कविता पाठ करते रहे और हम तीनों को साथ में वाह-वाह करने के लिए बैठा लिया गया. उन दिनों रामावतार त्यागी सांस की बीमारी से परेशान थे. बमुश्किल रिकॉर्डिंग करा सके लेकिन उस वाकए जैसे वक्त से एक सीख मिली कि उन दिनो बंबई जैसी चमक-दमक की दुनिया में भी साहित्य को लेकर वहां के चुनिंदा कवि-साहित्यकारों में कितनी सजगता थी. ‘हल्दीघाटी’ का वह रिकार्ड कविता-पाठ तो कभी सुनने को नहीं मिला और रामावतार त्यागी भी नहीं रहे, लेकिन कविता के प्रति उनकी लगन और मेहनत आज भी प्रेरणा देती रहती है. काश, वह रिकार्डिंग सुनने को कहीं से मिल जाती- ‘रण बीच चौकड़ी, भर भरकर, चेतक बन गया निराला था, राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था…!”

पांडेय जी की यह कविता उनके सुप्रसिद्ध काव्य-संग्रह ‘हल्दी घाटी’ में है. गौरतलब है, कि इस काव्य-संग्रह को उस समय का सर्वश्रेष्ठ सम्मान ‘देव पुरस्कार’ प्राप्त हुआ था. ‘हल्दीघाटी’ काव्य में महाराणा प्रताप और अकबर के सेनापति मानसिंह के बीच हल्दीघाटी के मैदान में हुए भीषण युद्ध में महाराणा प्रताप के रणकौशल और वीरता का वर्णन है, जिसे पढ़ते हुए राष्ट्रीय भावना से मन रोमांचित हो जाता है. ‘हल्दीघाटी’ काव्य-संग्रह मात्र काव्य-संग्रह न होकर इतिहास की एक पूरी गाथा कहता है, ऐसे में इसे एक ऐतिहासिक कविता कहना ही सही रहेगा. इस काव्य का हर शब्द भीतर तक हर भारतीय को आज भी ओज से भर देता है.

हल्दीघाटी काव्य के एक अंश को चौथी कक्षा के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया, जिसे सालों से बच्चे पढ़कर बड़े हुए हैं. यह बहुत लंबी कविता है, लेकिन इसे बाल कविता की तरह छोटे बच्चों की पाठ्य पुस्तक में शामिल करना था और बच्चों को कविता याद करने में आसानी रहे, इसलिए इस कविता का सिर्फ एक छोटा-सा आसान अंश ही बच्चों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बना. बाल कविता के रूप में इस अंश को नाम दिया गया ‘चेतक की वीरता’. आइए पहले पढ़ते हैं कविता का वह छोटा-सा अंश जिसे बच्चों की पाठ्यपुस्त में शामिल किया गया और उसके बाद पढ़ें पूरी कविता-

चेतक की वीरता (चौथी कक्षा की पाठ्यपुस्तक से) : पं.श्याम नारायण पांडेय
रण बीच चौकड़ी भर-भर कर
चेतक बन गया निराला था
राणाप्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा का पाला था

जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड़ जाता था
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड़ जाता था

गिरता न कभी चेतक तन पर
राणाप्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर
वह आसमान का घोड़ा था

था यहीं रहा अब यहां नहीं
वह वहीं रहा था यहां नहीं
थी जगह न कोई जहां नहीं
किस अरिमस्तक पर कहां नहीं

निर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौडा करबालों में
फंस गया शत्रु की चालों में

बढ़ते नद-सा वह लहर गया
फिर गया गया फिर ठहर गया
विकराल वज्रमय बादल-सा
अरि की सेना पर घहर गया

भाला गिर गया गिरा निसंग
हय टापों से खन गया अंग
बैरी समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग

‘हल्दी घाटी’ द्वादश सर्ग : पं.श्याम नारायण पांडेय की पूरी कविता
निर्बल बकरों से बाघ लड़े,
भिड़ गए सिंह मृग-छौनों से.
घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी,
पैदल बिछ गए बिछौनों से

हाथी से हाथी जूझ पड़े,
भिड़ गए सवार सवारों से.
घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े,
तलवार लड़ी तलवारों से

हय-रूण्ड गिरे, गज-मुण्ड गिरे,
कट-कट अवनी पर शुण्ड गिरे.
लड़ते-लड़ते अरि झुण्ड गिरे,
भू पर हय विकल बितुण्ड गिरे

क्षण महाप्रलय की बिजली सी,
तलवार हाथ की तड़प-तड़प.
हय-गज-रथ-पैदल भगा भगा,
लेती थी बैरी वीर हड़प

क्षण पेट फट गया घोड़े का,
हो गया पतन कर कोड़े का.
भू पर सातंक सवार गिरा,
क्षण पता न था हय-जोड़े का

चिंग्घाड़ भगा भय से हाथी,
लेकर अंकुश पिलवान गिरा.
झटका लग गया, फटी झालर,
हौदा गिर गया, निशान गिरा

कोई नत-मुख बेजान गिरा,
करवट कोई उत्तान गिरा.
रण-बीच अमित भीषणता से,
लड़ते-लड़ते बलवान गिरा

होती थी भीषण मार-काट,
अतिशय रण से छाया था भय.
था हार-जीत का पता नहीं,
क्षण इधर विजय क्षण उधर विजय

कोई व्याकुल भर आह रहा,
कोई था विकल कराह रहा.
लोहू से लथपथ लोथों पर,
कोई चिल्ला अल्लाह रहा

धड़ कहीं पड़ा, सिर कहीं पड़ा,
कुछ भी उनकी पहचान नहीं.
शोणित का ऐसा वेग बढ़ा,
मुरदे बह गए निशान नहीं

मेवाड़-केसरी देख रहा,
केवल रण का न तमाशा था.
वह दौड़-दौड़ करता था रण,
वह मान-रक्त का प्यासा था

चढ़कर चेतक पर घूम-घूम
करता मेना-रखवाली था.
ले महा मृत्यु को साथ-साथ,
मानो प्रत्यक्ष कपाली था

रण-बीच चौकड़ी भर-भरकर
चेतक बन गया निराला था.
राणा प्रताप के घोड़े से,
पड़ गया हवा को पाला था

गिरता न कभी चेतक-तन पर,
राणा प्रताप का कोड़ा था.
वह दोड़ रहा अरि-मस्तक पर,
या आसमान पर घोड़ा था

जो तनिक हवा से बाग हिली,
लेकर सवार उड़ जाता था.
राणा की पुतली फिरी नहीं,
तब तक चेतक मुड़ जाता था

कौशल दिखलाया चालों में,
उड़ गया भयानक भालों में.
निभीर्क गया वह ढालों में,
सरपट दौड़ा करवालों में

है यहीं रहा, अब यहां नहीं,
वह वहीं रहा है वहां नहीं.
थी जगह न कोई जहां नहीं,
किस अरि-मस्तक पर कहां नहीं

बढ़ते नद-सा वह लहर गया,
वह गया गया फिर ठहर गया.
विकराल ब्रज-मय बादल-सा
अरि की सेना पर घहर गया

भाला गिर गया, गिरा निषंग,
हय-टापों से खन गया अंग.
वैरी-समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग

चढ़ चेतक पर तलवार उठा
रखता था भूतल-पानी को.
राणा प्रताप सिर काट-काट
करता था सफल जवानी को

कलकल बहती थी रण-गंगा
अरि-दल को डूब नहाने को.
तलवार वीर की नाव बनी
चटपट उस पार लगाने को

वैरी-दल को ललकार गिरी,
वह नागिन-सी फुफकार गिरी.
था शोर मौत से बचो,बचो,
तलवार गिरी, तलवार गिरी

पैदल से हय-दल गज-दल में
छिप-छप करती वह विकल गई!
क्षण कहां गई कुछ, पता न फिर,
देखो चमचम वह निकल गई

क्षण इधर गई, क्षण उधर गई,
क्षण चढ़ी बाढ़-सी उतर गई.
था प्रलय, चमकती जिधर गई,
क्षण शोर हो गया किधर गई

क्या अजब विषैली नागिन थी,
जिसके डसने में लहर नहीं.
उतरी तन से मिट गए वीर,
फैला शरीर में जहर नहीं

थी छुरी कहीं, तलवार कहीं,
वह बरछी-असि खरधार कहीं.
वह आग कहीं अंगार कहीं,
बिजली थी कहीं कटार कहीं

लहराती थी सिर काट-काट,
बल खाती थी भू पाट-पाट.
प्रकीर्णन घटक से-से
तनती थी लोहू चाट-चाट

सेना-नायक राणा के भी
रण देख-देखकर चाह भरे.
मेवाड़-सिपाही लड़ते थे
दूने-तिगुने उत्साह भरे

क्षण मार दिया कर कोड़े से
रण किया उतर कर घोड़े से.
राणा रण-कौशल दिखा दिया
चढ़ गया उतर कर घोड़े से

क्षण भीषण हलचल मचा-मचा
राणा-कर की तलवार बढ़ी.
था शोर रक्त पीने को यह
रण-चण्डी जीभ पसार बढ़ी

वह हाथी-दल पर टूट पड़ा,
मानो उस पर पवि छूट पड़ा.
कट गई वेग से भू, ऐसा
रक्त वाहिका फट गयी

जो साहस कर बढ़ता उसको
केवल कटाक्ष से टोक दिया.
जो वीर बना नभ-बीच फेंक,
बरछे पर उसको रोक दिया

क्षण उछल गया अरि घोड़े पर,
क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर.
वैरी-दल से लड़ते-लड़ते
क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर

क्षण भर में गिरते रूण्डों से
मदमस्त गजों के झुण्डों से,
घोड़ों से विकल वितुण्डों से,
पट गई भूमि नर-मुण्डों से

ऐसा रण राणा करता था
पर उसको था संतोष नहीं
क्षण-क्षण आगे बढ़ता था वह
पर कम होता था रोष नहीं

कहता था लड़ता मान कहां
मैं कर लूं रक्त-स्नान कहां.
जिस पर तय विजय हमारी है
वह मुगलों का अभिमान कहां

भाला कहता था मान कहां,
घोड़ा कहता था मान कहां?
राणा की लोहित आंखों से
रव निकल रहा था मान कहां

लड़ता अकबर सुल्तान कहां,
वह कुल-कलंक है मान कहां?
राणा कहता था बार-बार
मैं करूं शत्रु-बलिदान कहां?

तब तक प्रताप ने देख लिया
लड़ रहा मान था हाथी पर.
अकबर का चंचल साभिमान
उड़ता निशान था हाथी पर

वह विजय-मन्त्र था पढ़ा रहा,
अपने दल को था बढ़ा रहा.
वह भीषण समर-भवानी को
पग-पग पर बलि था चढ़ा रहा

फिर रक्त देह का उबल उठा
जल उठा क्रोध की ज्वाला से.
घोड़ा से कहा बढ़ो आगे,
बढ़ चलो कहा निज भाला से

हय-नस नस में बिजली दौड़ी,
राणा का घोड़ा लहर उठा.
शत-शत बिजली की आग लिए
वह प्रलय-मेघ-सा घहर उठा

क्षय अमिट रोग,वह राजरोग,
ज्वर सन्निपात लकवा था वह.
था शोर बचो घोड़ा-रण से
कहता हय, कौन हवा था वह

तनकर भाला भी बोल उठा
राणा मुझको विश्राम न दे.
बैरी का मुझसे हृदय गोभ
तू मुझे तनिक आराम न दे

खाकर अरि-मस्तक जीने दे,
बैरी-उर-माला छाती.
मुझको शोणित की प्यास लगी
उन्हें बढ़ने दो, उन्हें खून पीने दो

मुरदों का ढेर लगा दूं मैं,
अरि-सिंहासन थहरा दूं मैं.
राणा मुझको आज्ञा दे दे
शोणित सागर लहरा दूं मैं

रंचक राणा ने देर न की,
घोड़ा बढ़ आया हाथी पर.
वैरी-दल का सिर काट-काट
राणा चढ़ आया हाथी पर

गिरि की चोटी पर चढ़कर
किरणों निहारती लाशें,
जिनमें कुछ तो मुरदे थे,
कुछ की चलती थी सांसें

वे देख-देख कर उनको
मुरझाती जाती पल-पल.
यह स्वर्णिम आकाश पर होता था
पक्षी-क्रन्दन का कल-कल

मुख छिपा लिया सूरज ने
जब रोक न सका रूलाई.
सावन की अन्धी रजनी
वारिद-मिस रोती आई

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