कवि सम्मेलनों में अपार लोकप्रियता के चलते नीरज को मुंबई फिल्म जगत ने गीतकार के रूप में नई उमर की नई फसल के गीत लिखने का निमंत्रण दिया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे ‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’ और ‘देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा’बेहद लोकप्रिय हुए… जिसका परिणाम यह हुआ कि वे मुंबई में रहकर फ़िल्मों के लिए गीत लिखने लगे. फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला ‘मेरा नाम जोकर’, ‘शर्मीली’ और ‘प्रेम पुजारी’ जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा. वहां की ज़िन्दगी से भी उनका मन बहुत जल्दी उचट गया और वे फिल्म नगरी को अलविदा कहकर अलीगढ़ वापस लौट आए.

गोपालदास ‘नीरज’ की कविताई में रूमानियत की कई मिसालें हैं. इन सबके साथ इसी तर्ज पर बुने गए फिल्मी गानों की भी लंबी फेहरिस्त है. यही वजह है कि नीरज को इस सदी के महान श्रृंगार कवियों में से एक माना जाता है, हालांकि उन्होंने इस उपाधि को कभी स्वीकार नहीं किया. वह कहते थे, “मेरी प्रेम कविताओं को लोकप्रियता ज्यादा मिली है, मगर उनसे इतर भी मैंने बहुत कुछ लिखा है. मैंने शृंगार के प्रतीक से लेकर दर्शन लिखा है.”

सिर से पांव तक खुद को ढके नीरज को अपने अंतिम दिनों में लगभग हर रोज दवाई खानी पड़ती रही, बावजूद इसके वह इन बातों से कभी नहीं घबराए. बीमारी की हालत में उन्होंने अपने एक करीबी मित्र से कहा था, “मैं तो पैदा ही बीमार हुआ था, इसलिए आज भी बीमार हूं. मैं तन से भोगी और मन से योगी रहा हूं. इसीलिए तन कष्ट में है, लेकिन मन आज भी मुक्त है, जैसे हमेशा से था.” साथ ही उन्होंने यह भी कहा, “मैंने अभी अपनी कालजयी रचना नहीं लिखी.” और इसे ही वह अपनी अंतिम इच्छा भी मानते थे. उन्होंने कहा था, “अगर शरीर ने थोड़ा सा साथ दिया तो मैं अपना कालजयी काम लिखूंगा।” हालांकि यह सच नहीं है, उन्होंने ऐसा बहुत कुछ लिखा जो कालजयी है और जो सदियों-सदियों तक पढ़ा जाएगा. उनकी रचनाएं अपनी प्रासंगिकता कभी नहीं खोएंगी और सदा महकती रहेंगा. एक महान व्यक्ति की यही ख़ासियत होती है, कि वह अपनी महानता को कभी स्वीकार नहीं करते और ‘नीरज’ भी कुछ ऐसे ही थे.

गोपालदास ‘नीरज’ को शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा साल 1991 में पद्म श्री और साल 2007 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया, साथ ही उन्हें लगातार तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिले. कवि नीरज को मूलतः उनके मशहूर गीतों की वजह से ही जाना जाता है लेकिन उन्होंने खूबसूरत दोहे भी लिखे हैं. प्रस्तुत हैं उनके सुप्रसिद्ध काव्य-संग्रह ‘गीत जो गाए नहीं’ से चुनिंदा कविताएं, जिन्हें डायमण्ड पॉकेट बुक्स ने 2005 में प्रकाशित किया-

1)
नारी

अर्ध सत्य तुम, अर्ध स्वप्न तुम, अर्ध निराशा-आशा
आधी अतृप्त, आधी तृप्त, आधी अतृप्त प्यास,
आधी काया आग तुम्हारी, आधी काया पानी,
अर्धांगिनी नारी! तुम जीवन की आधी परिभाषा.
इस पार कभी, उस पार कभी…..

तुम बिछुड़े-मिले हजार बार,
इस पार कभी, उस पार कभी.

तुम कभी अश्रु बनकर आंखों से टूट पड़े,
तुम कभी गीत बनकर सांसों से फूट पड़े,
तुम टूटे-जुड़े हजार बार
इस पार कभी, उस पार कभी.

तम के पथ पर तुम दीप जला धर गए कभी,
किरनों की गलियों में काजल भर गए कभी,
तुम जले-बुझे प्रिय! बार-बार,
इस पार कभी, उस पार कभी.

फूलों की टोली में मुस्काते कभी मिले,
शूलों की बांहों में अकुलाते कभी मिले,
तुम खिले-झरे प्रिय! बार-बार,
इस पार कभी, उस पार कभी.

तुम बनकर स्वप्न थके, सुधि बनकर चले साथ,
धड़कन बन जीवन भर तुम बांधे रहे गात,
तुम रुके-चले प्रिय! बार-बार,
इस पार कभी, उस पार कभी.

तुम पास रहे तन के, तब दूर लगे मन से,
जब पास हुए मन के, तब दूर लगे तन से,
तुम बिछुड़े-मिले हजार बार,
इस पार कभी, उस पार कभी.

2)
अब तुम्हारा प्यार भी

अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
चाहता था जब हृदय बनना तुम्हारा ही पुजारी,
छीनकर सर्वस्व मेरा तब कहा तुमने भिखारी,
आंसुओं से रात दिन मैंने चरण धोए तुम्हारे,
पर न भीगी एक क्षण भी चिर निठुर चितवन तुम्हारी,
जब तरस कर आज पूजा-भावना ही मर चुकी है,
तुम चलीं मुझको दिखाने भावमय संसार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

भावना ही जब नहीं तो व्यर्थ पूजन और अर्चन,
व्यर्थ है फिर देवता भी, व्यर्थ फिर मन का समर्पण,
सत्य तो यह है कि जग में पूज्य केवल भावना ही,
देवता तो भावना की तृप्ति का बस एक साधन,
तृप्ति का वरदान दोनों के परे जो-वह समय है,
जब समय ही वह न तो फिर व्यर्थ सब आधार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

अब मचलते हैं न नयनों में कभी रंगीन सपने,
हैं गए भर से थे जो हृदय में घाव तुमने,
कल्पना में अब परी बनकर उतर पाती नहीं तुम,
पास जो थे हैं स्वयं तुमने मिटाए चिह्न अपने,
दग्ध मन में जब तुम्हारी याद ही बाक़ी न कोई,
फिर कहां से मैं करूं आरम्भ यह व्यापार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

अश्रु-सी है आज तिरती याद उस दिन की नजर में,
थी पड़ी जब नाव अपनी काल तूफ़ानी भंवर में,
कूल पर तब हो खड़ीं तुम व्यंग मुझ पर कर रही थीं,
पा सका था पार मैं खुद डूबकर सागर-लहर में,
हर लहर ही आज जब लगने लगी है पार मुझको,
तुम चलीं देने मुझे तब एक जड़ पतवार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

3)
मैं क्यों प्यार किया करता हूं?

सर्वस देकर मौन रुदन का क्यों व्यापार किया करता हूं?
भूल सकूं जग की दुर्घातें उसकी स्मृति में खोकर ही
जीवन का कल्मष धो डालूं अपने नयनों से रोकर ही
इसीलिए तो उर-अरमानों को मैं छार किया करता हूं.
मैं क्यों प्यार किया करता हूं?

कहता जग पागल मुझसे, पर पागलपन मेरा मधुप्याला
अश्रु-धार है मेरी मदिरा, उर-ज्वाला मेरी मधुशाला
इससे जग की मधुशाला का मैं परिहार किया करता हूं.
मैं क्यों प्यार किया करता हूं?

कर ले जग मुझसे मन की पर, मैं अपनेपन में दीवाना
चिन्ता करता नहीं दु:खों की, मैं जलने वाला परवाना
अरे! इसी से सारपूर्ण-जीवन निस्सार किया करता हूं.
मैं क्यों प्यार किया करता हूं?

उसके बन्धन में बंध कर ही दो क्षण जीवन का सुख पा लूं
और न उच्छृंखल हो पाऊं, मानस-सागर को मथ डालूं
इसीलिए तो प्रणय-बन्धनों का सत्कार किया करता हूं.
मैं क्यों प्यार किया करता हूं?

4)
क्यों कोई मुझसे प्यार करे

अपने मधु-घट को ठुकरा कर मैंने जग के विषपान किए
ले लेकर खुद अभिशाप हाय, मैंने जग को वरदान दिए
फ़िर क्यों न विश्व मुझको पागल कहकर मेरा सत्कार करे.
क्यों कोई मुझसे प्यार करे!

उर-ज्वाला से मेरा परिणय
दुख की विभीषिका जीवन-अभिनय है
फ़िर शान्ति और सुख मेरे मानस में कैसे श्रृंगार करें.
क्यों कोई मुझसे प्यार करे!

जीवन भर जलता रहा, किन्तु निज मन का तिमिर मिटा न सका
इतना रोया, खुद डूब गया, पर जलता हृदय बुझा न सका
फ़िर क्यों न अश्रु भी नयनों में अब आने से इन्कार करें.
क्यों कोई मुझसे प्यार करे!

5)
अब न आऊंगा

जब तुम्हारी ही हृदय में याद हरदम
लोचनों में जब सदा बैठे स्वयं तुम
फ़िर अरे क्या देव, दानव क्या, मनुज क्या
मैं जिसे पूजूं जहां भी तुम वहीं साकार
किसलिए आऊं तुम्हारे द्वार?

क्या कहा- सपना वहां साकार होगा
मुक्ति और अमरत्व पर अधिकार होगा
किन्तु मैं तो देव! अब उस लोक में हूं
है जहां करती अमरता मर्त्य का श्रृंगार
क्या करूं आकर तुम्हारे द्वार?

तृप्ति-घट दिखला मुझे मत दो प्रलोभन
मत डुबाओ हास में ए अश्रु के कण
क्योंकि ढल-ढल अश्रु मुझ से कह गए हैं
प्यास मेरी जीत, मेरी तृप्ति ही है हार
मत कहो- आओ हमारे द्वार.

आज मुझ में तुम, तुम्हीं में मैं हुआ लय
अब न अपने बीच कोई भेद संशय
क्योंकि तिल-तिल कर गला दी प्राण मैंने
थी खड़ी जो बीच अपने चाह की दीवार
व्यर्थ फ़िर आना तुम्हारे द्वार.

दूर कितने भी रहो तुम पास प्रतिपल
क्योंकि मेरी साधना ने पल निमिष चल
कर दिए केन्द्रित सदा को ताप बल से
विश्व में तुम, और तुम में विश्व भर का प्यार
हर जगह ही अब तुम्हारा द्वार.

6)
मुस्कुराकर चल मुसाफिर

पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर!

वह मुसाफिर क्या जिसे कुछ शूल ही पथ के थका दें?
हौसला वह क्या जिसे कुछ मुश्किलें पीछे हटा दें?
वह प्रगति भी क्या जिसे कुछ रंगिनी कलियां तितलियां,
मुस्कुराकर गुनगुनाकर ध्येय-पथ, मंजिल भुला दें?
जिन्दगी की राह पर केवल वही पंथी सफल है,
आंधियों में, बिजलियों में जो रहे अविचल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर ..

जानता जब तू कि कुछ भी हो तुझे बढ़ना पड़ेगा,
आंधियों से ही न खुद से भी तुझे लड़ना पड़ेगा,
सामने जब तक पड़ा कर्तव्य-पथ तब तक मनुज ओ!
मौत भी आए अगर तो मौत से भिड़ना पड़ेगा,
है अधिक अच्छा यही फिर ग्रंथ पर चल मुस्कुराता,
मुस्कुराती जाए जिससे जिन्दगी असफल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर.

याद रख जो आंधियों के सामने भी मुस्कुराते,
वे समय के पंथ पर पदचिह्न अपने छोड़ जाते,
चिन्ह वे जिनको न धो सकते प्रलय-तूफान घन भी,
मूक रह कर जो सदा भूले हुओं को पथ बताते,
किन्तु जो कुछ मुश्किलें ही देख पीछे लौट पड़ते,
जिन्दगी उनकी उन्हें भी भार ही केवल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

कंटकित यह पंथ भी हो जायगा आसान क्षण में,
पांव की पीड़ा क्षणिक यदि तू करे अनुभव न मन में,
सृष्टि सुख-दुख क्या हृदय की भावना के रूप हैं दो,
भावना की ही प्रतिध्वनि गूंजती भू, दिशि, गगन में,
एक ऊपर भावना से भी मगर है शक्ति कोई,
भावना भी सामने जिसके विवश व्याकुल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

देख सर पर ही गरजते हैं प्रलय के काल-बादल,
व्याल बन फुफारता है सृष्टि का हरिताभ अंचल,
कंटकों ने छेदकर है कर दिया जर्जर सकल तन,
किन्तु फिर भी डाल पर मुसका रहा वह फूल प्रतिफल,
एक तू है देखकर कुछ शूल ही पथ पर अभी से,
है लुटा बैठा हृदय का धैर्य, साहस बल मुसाफिर!
पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर॥

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