निश्चित ही हिंदी का प्रयोग लगातार बढ़ता जा रहा है. आज हिंदी भारत की सीमा से परे जाकर भी बड़ी संख्या में बोली और पढ़ी जा रही है. अंग्रेजी मीडिया का भी तेजी से हिंदीकरण हुआ है. भारत के हिंदी से इतर भाषी क्षेत्रों में भी हिंदी में कविता-कहानी लिखी जा रही हैं. कह सकते हैं कि हिंदी का वैश्वीकरण हो रहा है. लेकिन इस वैश्वीकरण में हिंदी में तमाम नए-नए शब्द आ गए हैं. तमाम देशज शब्द अब धड़ल्ले से बोले जाने लगे हैं. कई बोलियों के शब्द बड़ी सरलता से हिंदी में आकर समाहित हो गए हैं.

ऐसे में जब कोई हिंदी के सही शब्दों को चुनने या उस पर चर्चा करता है तो भ्रम की स्थिति हो जाती है कि सही शब्द क्या है, या इस शब्द का सही अर्थ क्या है. कई बार चर्चा करते हुए शब्दों की उत्पत्ति, उनकी वर्तनी, प्रयोग या कोई शब्द विशेष कहां और कैसे इस्तेमाल किया जाता है, को लेकर सवाल खड़े हो जाते हैं. कई बार कई शब्द एक जैसी ध्वनि उत्पन्न करते हैं, लेकिन उनके अर्थ अलग-अलग होते हैं या फिर ऐसा भी होता है कि एक ही अर्थ के लिए हम अलग-अलग शब्दों का इस्तेमाल करते हैं. आप कह सकते हैं कि हम हिंदी भाषा और हिंदी व्याकरण की बात कर रहे हैं. अगर आप व्याकरण या फिर किसी भाषाविद् के हिंदी शब्द कोश में शब्दों की खोजबीन में जुटेंगे तो निश्चित ही यह कार्य बड़ा ही बोझिल लगेगा.

शब्द कोश, व्याकरण या फिर किसी भाषाविद् की पुस्तक पढ़ते हुए निरसता का अनुभव होता है. पाठक जिस जिज्ञासा के साथ पुस्तक के पन्नों में विचरण करने लगता है, भाषा की जटिलता उसके सफर को बोझिल बना देती है.

ऐसे में यहां जाने-माने भाषाविद् डॉ. सुरेश पंत की पुस्तक ‘शब्दों के साथ-साथ’ का जिक्र करना जरूरी हो जाता है. ‘शब्दों के साथ-साथ’ पुस्तक हिंद पॉकेट बुक्स से इस साल जनवरी में छपकर आई थी. पाठकों द्वारा यह पुस्तक खूब पसंद की जा रही है. सोशल मीडिया पर भी इसके प्रकाशन से लेकर लगातार चर्चा हो रही है.

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जब इस पुस्तक को पढ़ना शुरू किया तो एक बार भी यह नहीं लगा कि यह कोई भाषा या व्याकरण की पुस्तक है. भाषा की किताब होने के बाद भी इसे पढ़ते हुए आनंद आता है. अन्य भाषा की किताबों के तरह यह जटिल या शुष्क नहीं है. इसमें किस्से कहानियों और सरल वाक्यों के माध्यम से भाषा के सही प्रयोग को समझाया गया है. कहानी या उपन्यास पढ़ते हुए जिस प्रकार के रोमांच का अनुभव होता है ऐसी ही रोचकता इस किताब में शुरू से अंत तक बनी रहती है. ये बातें ही इस किताब को भाषा या शब्दों की अन्य किताबों से अलग बनाती है. यह पुस्तक शब्दों की उलझन को सुलझाने में मदद करती है.

‘शब्दों के साथ-साथ’ पुस्तक में पाठक की रोचकता निरंतर बनी रहती है. इसमें पारिभाषिक शब्दाबली नहीं दी गई है. जैसे- अगला, आगामी और अग्रिम शब्द. इस शब्दों को लेकर हमेशा भ्रम की स्थिति बनी रहती है कि कौन-सा शब्द कहां इस्तेमाल होगा. यहां इस शब्दों को इस तरह समझा गया है-
– शनिवार से अगला (Next) दिन रविवार है.
– कहते हैं अगले (Past) जमाने के लोग सीधे-साधे होते थे.
– कौन जाने, अगला (Coming) समय कैसा आएगा.
– पता नहीं अगला (Someone) क्या सोचेगा.

इनसे अगला अध्याय है ‘अच्छा-भला‘. आम बोलचाल में अच्छा और भला शब्दों का हम ना जाने कितनी बार प्रयोग करते हैं. अलग-अलग स्थानों पर इनके अर्थ भी अलग-अलग होते हैं. पुस्तक में बताया गया है कि किसी के लिए कोई विशेषण तत्काल ने सूझे तो हम ‘अच्छा’ का प्रयोग करते हैं.

अच्छा-भला शब्दों के बारे में सुरेश पंत लिखते हैं- हिंदी में अच्छा शब्द का बहुत अर्थ-विस्तार हुआ है. विशेषण के रूप में इसका प्रयोग अनेक संदर्भों में होता है- जब किसी की प्रशंसा उसके कार्यों, गुणों या अन्य बातों के लिए की जाती है. जैसे-
– प्रशंसनीय या अनुकरणीय होने परः अच्छा विचार है आपका, अच्छे काम कीजिए, अच्छा स्वभाव हो तो मित्र बना लो, अच्छा मित्र हितैषी भी होता है आदि.
– देखने-सुनने में मन को प्रसन्न करने वाला, मनोरंजकः अच्छा कार्यक्रम, अच्छा संगीत, अच्छी पेंटिंग, अच्छी धूप आदि.
– खोट या मिलावट रहित, शुद्धः अच्छी मिठाई दीजिए, अच्छा देसी घी चाहिए, अच्छा मोती चमकदार होता है.
– गुणी, अनुभवी, विश्वसनीयः हमें अच्छा डॉक्टर मिल गया, अच्छे नागरिक बनिए, कोई अच्छा शिक्षक बताइए आदि.

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इस तरह पुस्तक में 128 अध्यायों में छोटे-छोटे प्रकरणों के माध्यम से शब्दों के प्रयोग को समझाया गया है. अब जैसे ‘जूठा’ शब्द को ही लें. यहां डॉ. सुरेश पंत बताते हैं कि किसी के द्वारा खाना खाते हुए छुआ या खाने के बाद बचा हुआ अन्न, पीने से बचा पानी, जिस थाली या गिलास में खाया-पिया गया हो, खाना खाने वाले हाथों से छुआ हुआ पात्र आदि के लिए ‘जूठा’ विशलेषण का प्रयोग किया जाता है.

यहां यह बात भी ध्यान खींचती है कि पश्चिमी सभ्यता में ‘जूठा’ की कोई विशेष संकल्पना ही नहीं है. इसलिए वहां ‘जूठा’ के लिए कोई उपयुक्त शब्द भी नहीं है.

क्या होता है ‘तकिया कलाम’
‘तकिया कलाम’ उर्फ टेक चैप्टर में इसके बारे में विस्तार से बताया गया है. वे शब्द या वाक्यांश जिन्हें कुछ लोग बातचीत करते हुए प्रायः बार-बार कहा करते हैं, तकिया कलाम (Catchphrase) कहे जाते हैं. वस्तुतः ये एक प्रकार की टेक का काम करते हैं. टेक का अर्थ है टिकना, थमना, सहारा लेना. जैसे संगीत में प्रत्येक अंतरा के बाद गायक घूम-फिर कर टेक पर आता है, उसी प्रकार तकिया कलाम वाला भी.

यह तकिया और कलाम से बना यौगिक शब्द है. तकिया का अर्थ है आराम के लिए सोने, लेटने आदि के समय सिर के नीचे रखने अथवा पीठ-कमर आदि को सहारा देने के लिए प्रयुक्त एक उपधान. कलाम अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है वाणी, वाक्य, वचन, कथन या बातचीत.

वैसे तो पूरी किताब ही बहुत रुचिकर है. छोटे-छोटे अध्यायों में बंटी यह किताब पाठक को ठहरकर शब्दों पर सोचने-समझने का मौका देती है. और जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते जाते हैं, शब्दों में आपकी रुचि बढ़ती ही जाती है. लगता है कि पूरी किताब खत्म करके ही चैन लिया जाए.

किताब में खुर्द, कलां, नांगल, डीह, माजरा; कड़ाह, कड़ाही, कड़ाई, कढ़ाई और काढ़ा; पिता और बाप की बात; पूज्य और पूजनीय; प्रणय, प्रणयन, परिणय, प्रणीत और परिणीत; कविराज और वैद्यराज; कांड, घोटाला से घूस तक समेत कई अध्यायों के शीर्षक पाठक को अपनी ओर खींचते हैं.

इस प्रकार तमाम शब्दों की यात्रा करते हुए आप जब पुस्तक के अंत में कथा ‘पूर्णविराम’ की पर जाकर समाप्त होती है. यह पढ़कर आश्चर्य होता है कि हिंदी में सभी विराम चिह्न अंग्रेजी से ज्यों की त्यों ले लिए गए हैं. केवल पूर्ण विराम का चिह्न (।) पारंपरिक है. उसका भी एक विकल्प बिंदु (.) के रूप में उपस्थित है.

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यहां डॉ. सुरेश पंत लिखते हैं- “वस्तुतः संस्कृत में प्रारंभ के वैदिक साहित्य में विराम चिह्नों की आवश्यकता थी ही नहीं. मौखिक परंपरा थी और गुरुओं के द्वारा शिष्यों को उच्चारण, विराम, गति-यति सहित मंत्रों को रटा दिया जाता था और यही परंपरा चलती रही.”

इस पुस्तक की उपयोगिता के बारे में डॉ. सुरेश पंत लिखते हैं- “निरंतर प्रयोग से हिंदी के शब्द भंडार में नए-नए शब्द जुड़ रहे हैं. पारंपरिक शब्द संपदा कोशीय अर्थों से बाहर विविध प्रकार की अर्थ छवियां ग्रहण कर रहे हैं. कहीं-कहीं शब्द परंपरागत अर्थ छोड़ रहे हैं और उनमें अर्थ विस्तार हो रहा है. ऐसे में हिंदी का उपयोग करने वालों के सामने यह एक चुनौती होती है कि अपनी बात को व्यक्त करने के लिए अमुक शब्द उपयोगी होगा या नहीं, उसे वाक्य में प्रभावी ढंग से कैसे पिरोया जाए और उसकी वर्तनी क्या होगी.”

अपनी बात आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं- वर्तनी, प्रयोग, अर्थ संदर्भ, वाक्य गठन आदि के प्रति जागरूकता में कमी होना कोई नई बात नहीं थी, किंतु अब सही रूप को समझने और बरतने के प्रति भी उदासीनता दिखाई पड़ती है जो ‘सब चलता है’ के दृष्टिकोण में परिणत हो गई है.

इस प्रकार इस पुस्तक में रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वाले बहुत-से शब्दों के बारे में छोटे-छोटे अध्यायों में बांटकर बड़ी ही रोचक शैली में बताया गया है. अगर आप हिंदी के सुधी पाठक हैं, शिक्षक हैं या विद्यार्थी हैं, मीडिया में काम करते हैं या फिर अनुवाद करते हैं या शोध करते हैं निश्चित ही यह पुस्तक बहुत मददगार साबित होगी.

डॉ. सुरेश पंत
सोशल मीडिया पर डॉ. सुरेश पंत लोगों की शब्दों से जुड़ी जिज्ञासाओं और भाषा संबंधित समस्याओं का समाधान करते नजर आते हैं. उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में जन्मे पंतजी ने आगरा विश्वविद्यालय से स्नातक, दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी में परास्नातक, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से संस्कृत में परास्नातक और मेरठ विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है. आपने तमिल और रूसी भाषा में भी डिप्लोमा किया है.

सुरेश पंत उत्तर प्रदेश और दिल्ली में हिंदी शिक्षण के साथ-साथ अनेक अहम सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों में हिंदी के विषय विशेषज्ञ; परामर्शदाता; पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक और पठन सामग्री निर्माता इत्यादि विभिन्न भूमिकाओं में सक्रिय रहे हैं.

पुस्तकः शब्दों के साथ-साथ
लेखक: डॉ. सुरेश पंत
प्रकाशक: हिंद पॉकेट बुक्स
कीमत: रु

टैग: पुस्तकें, हिंदी साहित्य, हिंदी लेखक, साहित्य

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