पवार और सत्ता: राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को लेकर असमंजस के हालात बने हुए हैं. फिलहाल ये कहना बहुत मुश्किल है कि पार्टी का नाम और निशान शरद पवार गुट को मिलेगा या चुनाव आयोग अजित पवार गुट के पक्ष में फैसला सुनाएगा. पार्टी के संरक्षक शरद पवार के भतीजे अजीत पवार ने महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ भाजपा-शिवसेना (शिंदे) गठबंधन से 2 जुलाई 2023 को हाथ मिला लिया. इसके बाद वह महाराष्‍ट्र के दूसरे उपमुख्यमंत्री बन गए हैं. उनका दावा है कि उन्‍हें राकांपा के 53 में से ज्‍यादातर विधायकों का समर्थन हासिल है.

अजित पवार ने 5 जुलाई को अपने 83 वर्षीय चाचा शरद पवार पर तंज कसा, ‘आप अब 83 वर्ष के हैं. क्या आप किसी दिन रुकेंगे या नहीं?’ साथ ही कहा कि शरद पवार के लिए यह उनके राजनीतिक जीवन का सबसे कठिन पल हो सकता है. इसके बाद उन्‍होंने एनसीपी के नाम और निशान पर भी दावा कर दिया. राकांपा के दोनों गुटों ने चुनाव आयोग पार्टी के नाम और निशान को हासिल करने के लिए अपील की. चुनाव आयोग इस मामले में कोई फैसला ले उसके पहले जानते हैं, पवार का पावर के लिए संघर्ष और उनकी पार्टी राकांपा की स्‍थापना की कहानी.

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कांग्रेस के टूटने पर इंदिरा गुट में हो गए शामिल
शरद पवार 1999 में एनसीपी के गठन से पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में एक थे. पश्चिमी महाराष्ट्र के चीनी उत्पादक क्षेत्र पुणे से करीब 100 किमी दक्षिण-पूर्व में बारामती में किसान नेताओं के परिवार में 1940 में जन्‍मे शरद पवार के पिता गोविंदराव ने क्षेत्र में सहकारी चीनी मिलें स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई थी. छोटी उम्र से ही राजनीति में रुचि रखने वाले पवार 1958 में कांग्रेस की युवा शाखा में शामिल हो गए. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और राज्‍य में कांग्रेस के मजबूत नेता रहे यशवंतराव चह्वाण के नेतृत्व में पवार ने 1967 में बारामती से अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़ा और जीता. कांग्रेस के 1969 में विभाजन के बाद वह इंदिरा गांधी के गुट में शामिल हो गए.

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कांग्रेस जब दूसरी बार टूटी तो शरद पवार इंदिरा गांधी के खिलाफ वाले गुट में चले गए.

फिर टूटी कांग्रेस, इंदिरा के खिलाफ हुए पवार
महाराष्‍ट्र की सियासत में चाणक्‍य के तौर पर पहचाने जाने वाले शरद पवार का 1970 के दशक में कांग्रेस में कद बढ़ता गया. उन्‍हें 1975 में महाराष्‍ट्र में कैबिनेट पद मिला. आपातकाल के बाद कांग्रेस की चुनावी हार के कारण पार्टी एक बार फिर टूटी. शरद पवार इस बार इंदिरा गांधी के खिलाफ हो गए. शरद पवार 1978 में महज 37 साल की उम्र में कांग्रेस (यू) और जनता पार्टी की गठबंधन सरकार में मुख्‍यमंत्री बने. इस तरह वह महाराष्ट्र के इतिहास में सबसे कम उम्र के सीएम बने. हालांकि, यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई. इंदिरा गांधी ने 1980 में सत्ता में लौटने के तुरंत बाद महाराष्‍ट्र सरकार को बर्खास्त कर दिया. पवार 1986 में कांग्रेस में लौट आए और अगले एक दशक में पार्टी के सबसे प्रभावशाली नेताओं में शुमार हो गए.

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कांग्रेस से मतभेद, एनसीपी का किया गठन
शरद पवार 1999 तक कांग्रेस में बने रहे, लेकिन उनके और पार्टी नेतृत्व के बीच तनाव पहले से ही पैदा होना शुरू हो गया था. कांग्रेस नेता और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का एक चुनावी रैली के दौरान 1991 में एक आतंकी हमले में निधन हो गया. इससे पार्टी नेतृत्‍व में शून्य की स्थिति पैदा हो गई. कांग्रेस के उस साल लोकसभा चुनाव जीतने के बाद पवार ने खुले तौर पर अपनी प्रधानमंत्री पद की आकांक्षाओं को जाहिर कर दिया. उन्होंने लगा कि उनके नेतृत्व में महाराष्ट्र में पार्टी की भारी चुनावी सफलता को देखते हुए शीर्ष पद के लिए उनका दावा वैध है. हालांकि, पार्टी नेतृत्‍व ने उनके बजाय प्रधानमंत्री पद के लिए पीवी नरसिम्हा राव को चुना.

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नहीं बने पीएम, सोनिया गांधी को बताया जिम्‍मेदार
पवार ने 2015 में प्रकाशित अपन आत्मकथा ‘लाइफ ऑन माई टर्म्स – फ्रॉम द ग्रासरूट्स टू द कॉरिडोर्स ऑफ पावर’ में पीएम पद के लिए उनके बजाय पीवी नरसिम्‍हा राव को चुनने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पत्‍नी सोनिया गांधी को दोषी ठहराया. उन्‍होंने लिखा, ’10 जनपथ के स्वयंभू वफादारों ने बातचीत में कहना शुरू कर दिया था कि शरद पवार की उम्र काफी कम है. अगर वह प्रधानमंत्री बनाए जाते हैं तो कांग्रेस के प्रथम परिवार के हितों को नुकसान होगा.’ दरअसल, उनका तर्क था कि शरद पवार बहुत लंबे समय तक बागडोर संभालेंगे. हालांकि, सोनिया गांधी और शरद पवार के बीच टकराव के कारण ही कांगेस को 1990 के दशक में नुकसान नहीं पहुंचा था. इसके लिए कई दूसरी चीजें भी जिम्‍मेदार थीं.

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शरद पवार कांग्रेस के उन पहले कुछ नेताओं में थे, जिन्‍होंने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाया था.

सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाया
कांग्रेस 1990 के दशक में भारतीय राजनीति में अपना आधिपत्यवादी खो रही थी. उस समय पार्टी में अंदरूनी कलह और गुटबाजी चरम पर थी. इसी बीच, सोनिया गांधी को 1998 में कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया. इससे कांग्रेस के कुछ नेता नाराज हो गए. इनमें शरद पवार भी थे, जो उस समय लोकसभा में विपक्ष के नेता थे. पूर्व राष्ट्रपति और दिग्गज कांग्रेस नेता प्रणब मुखर्जी ने अपनी आत्मकथा में इशारा किया है कि पवार ने कांग्रेस के भीतर अलगाव की गहरी भावना के कारण पार्टी छोड़ी. मई 1999 में देश आम चुनावों की ओर बढ़ रहा था. उसी दौरान पवार ने वरिष्‍ठ कांग्रेस नेता पीए संगमा और तारिक अनवर के साथ सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाया. उन्‍होंने कहा कि सोनिया गांधी की जगह किसी दूसरे नेता को पार्टी का नेतृत्व करना चाहिए.

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कांग्रेस से निकाले गए तो बना ली राकांपा
कांग्रेस के बड़े नेताओं के विदेशी मूल का मुद्दा उछालने के बाद सोनिया गांधी ने तुरंत इस्तीफे की पेशकश कर दी. इससे सोनिया गांधी के लिए कांग्रेस के भीतर सहानुभूति और समर्थन की बाढ़ आ गई. इससे शरद पवार काफी नाराज हो गए. इस पर पवार और दूसरे विद्रोहियों को पार्टी से निकाल दिया गया. इसके बाद कांग्रेस में शरद पवार का समय हमेशा के लिए खत्‍म हो गया. फिर शरद पवार ने 10 जून 1999 को राष्‍ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया. कांग्रेस से अनौपचारिक रूप से निकाले जाने के बावजूद पवार और राकांपा ने जल्द ही इसके साथ गठबंधन किया. राकांपा-कांग्रेस ने 1999 में महाराष्ट्र में सरकार बनाई. अजीत पवार, छगन भुजबल और दिलीप वाल्से पाटिल जैसे पूर्व कांग्रेसी नेता मंत्री बनाए गए.

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कांग्रेस के साथ केंद्र की सत्‍ता में रहे पवार
कांग्रेस और राकांपा का गठबंधन 2014 तक केंद्र की सत्ता में रहा. दरअसल, राकांपा भी 2004 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का हिस्सा रही. शरद पवार 2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह सरकार के दोनों कार्यकाल में केंद्रीय कृषि मंत्री के तौर पर रहे. राकांपा अपने स्‍वर्णकाल में महाराष्‍ट्र के साथ ही केंद्र की सत्‍ता में भी बनी रही. उस दौरान राकांपा को महाराष्‍ट्र के ग्रामीण इलाकों का पूरा समर्थन हासिल रहा. दरअसल, चीनी क्षेत्र में अपने आधार और विभिन्‍न सहकारी समितियों के इतिहास के साथ पवार महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में प्रभावशाली नेता रहे हैं. इससे राकांपा ने ने जल्द ही महाराष्‍ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस से सत्ता छीन ली. हालांकि, सत्ता में राकांपा का कार्यकाल गलत कामों के आरोपों से घिरा रहा.

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राकांपा 2014 में मोदी लहर आने के बाद महाराष्‍ट्र और केंद्र की सत्‍ता से बाहर हो गई.

सत्‍ता में रहने पर आरोपों से घिरी राकांपा
शरद पवार पर सबसे पहले 2007 में करोड़ों रुपये के गेहूं खरीद और 2009 में चीनी की कीमतों में भारी वृद्धि के संबंध में भ्रष्टाचार के आरोप लगे. पवार पर जमाखोरों और आयातकों को लाभ पहुंचाने के लिए कीमतों में बढ़ोतरी की योजना बनाने का आरोप लगाया गया था. उन्हें खतरनाक कीटनाशक एंडोसल्फान को बढ़ावा देने के लिए भी कठघरे में खड़ा किया गया. यही नहीं, उन्‍हें यूपीए-2 के दौरान कृषि उत्पादों की कीमतों में वृद्धि के लिए भी दोषी ठहराया गया था. बीसीसीआई अध्यक्ष के तौर पर पवार के कार्यकाल की लंबे समय तक आलोचना होती रही. आलोचकों ने कहा कि उन्होंने अपने मंत्री पद के कर्तव्यों को निभाने के बजाय भारत में क्रिकेट चलाने में ज्‍यादा समय बिताया.

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मोदी लहर आई और सत्‍ता से हुए बाहर
राकांपा ने 2014 में आई मोदी लहर के साथ केंद्र और महाराष्ट्र दोनों में सत्ता खो दी. हालांकि, राकांपा ने महाराष्‍ट्र में भाजपा की अल्पमत सरकार को कुछ समय के लिए बाहर से समर्थन दिया था. इसी दौरान बीजेपी की अलग हो चुकी सहयोगी पार्टी शिवसेना ने फिर पार्टी के साथ आने का फैसला किया. ऐसे में बीजेपी सरकार को एनसीपी का समर्थन बेमानी हो गया. आम चुनाव 2019 में एनसीपी ने महाराष्ट्र में कुल 48 लोकसभा सीटों में से 34 पर चुनाव लड़ा, लेकिन केवल 5 सीटों पर ही जीत दर्ज कर सकी. हालांकि, राकांपा ने विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया. भाजपा-शिवसेना गठबंधन टूट गया. महाराष्‍ट्र की सियासत में नाटकीय मोड़ आया और राकांपा, कांग्रेस व शिवसेना ने मिलकर महा विकास अघाड़ी सरकार बनाई.

पार्टी ने खो दिया राष्‍ट्रीय पार्टी का दर्जा
एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना विधायकों के एक गुट ने विद्रोह कर दिया. शिंदे गुट ने शिवसेना से नाम और निशान छीन लिया. इसके बाद शिवसेना (शिंदे) ने महाराष्ट्र की सत्ता में लौटने में मदद करने के लिए भाजपा के साथ गठबंधन कर लिया. नतीजतन महाराष्‍ट्र की महा विकास अघाड़ी सरकार करीब तीन साल बाद 2022 में गिर गई. तब से लेकर अब तक एनसीपी विपक्ष में बैठी है. इस समय राकांपा प्रभावी विपक्षी आवाज बनने के लिए संघर्ष कर रही है. अप्रैल 2023 में एनसीपी ने राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा खो दिया. अब एनसीपी के एक गुट के बीजेपी-शिवसेना (शिंदे) सरकार में शामिल होने के बाद समय ही बताएगा कि शरद पवार शीर्ष पर आते हैं या सियासत की अंधेरी गलियों में कहीं खो जाते हैं.

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