15 मई 1950 को जन्में वी. के. सिंह साल 2010 में जीवन बीमा निगम से सेवा निवृत्त होने के बाद पूरी तरह से राजनीतिक-आर्थिक-जेंडर विषयों पर शोध व लेखन के कार्य से जुड़ गए. उनके लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का हिस्सा बने, साथ ही वे लघु पत्रिका आंदोलने से भी जुड़े रहे हैं. वी. के. सिंह लिखते हैं, “अपने वैयक्तिक, श्रमशील और राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन में मेरा जितना भी साबका औरतों से हुआ, उन्होंने अपनी समझदारी, संवेदना, हौसले और जुझारूपन के आवेस से अचंभित किया है. मेरी अपनी समझदारी में यह बात कभी ‘अट’ ही नहीं पायी कि आखिर क्यों औरत को उन बंधनों और सीमाओं के दायरे में रहना चाहिए जो आदमियों के लिए नहीं हैं. वैयक्तिक-सामाजिक-राजनीतिक जीवन के हर क्षेत्र में हर कदम पर औरत सबसे ज्यादा खतरा उठाती और सबसे ज्यादा तकलीफें सहती दिखती है. बावजूद इसके बात जब भी अधिकार और बराबरी की आती है, औरत की दावेदारी हमेशा नकारी जाती रही. इसलिए नहीं कि औरत को अधिकार और बराबरी की ज़रूरत नहीं है, बल्कि इसलिए कि सारे अधिकारों पर आदमी का कब्जा है. इसके चलते बराबरी की गुंजाइश नहीं है. आखिर क्यों इस दुनिया में, जिसे बनाना और चलाना औरत की भागीदारी के बिना मुमकिन नहीं, औरत को आदमी के मातहत, उसके ‘संरक्षण’ और ‘सरपरस्ती’ में रहना चाहिए?”

सितंबर, वर्ष 2022 में ‘प्रलेक प्रकाशन’ से आई किताब ‘आधुनिक भारत में औरत के सपने और संघर्ष’ में वी. के. सिंह महिलाओं से जुड़े कई ज़रूरी मुद्दों की तह तक पहुंचने की कोशिश करते हैं. पुस्तक के प्रस्तुत अंश में बंगलोर की गारमेंटस फैक्ट्रियां और कामगार औरतों की उस स्थिति को काफी अच्छे से बयां किया गया है, जिसका सामना उन्हें हर दिन करना पड़ता है. गौरतलब है, कि देश में पांच गारमेंट उत्पान हब हैं, जिनमें से बंगलोर एक है, जहां लगभग 1200 के करीब बड़ी, मझोली और छोटी गारमेंट फैक्ट्रियां हैं.

पुस्तक के अंश : गारमेंट उद्योग, बंगलोर में औरत
बंगलोर में गारमेंट-टेक्स्टाइल उत्पादन के लिए आईटी की तरह कोई चिन्हित स्पेशल इकोनामिक ज़ोन या एक्सपोर्ट प्रमोशन ज़ोन नहीं है. गारमेंट फैक्ट्रियां शहर के विभिन्न औद्योगिक इलाकों, खासकर पीन्या इंडस्ट्रियल एरिया, मैसूर रोड और बोम्मनहल्ली में फैली हुई हैं. कामगार अपने परिवारों के साथ रहते हैं और फैक्ट्री परिसर में काम करने के लिए आते-जाते हैं. कामगारों को घर ले जाकर काम करने की इजाज़त नहीं है. पगार उन्हें पीस रेट के हिसाब से नहीं बल्कि नहीने की मिलती है. निर्धारित काम के घंटे 9 हैं. आधे घंटे का लंच ब्रेक मिलता है.

गारमेंट उद्योग क्षेत्र में सुपरवाइजरी स्टाफ और प्रबंधन पर पुरुषों का एकाधिकार होने के चलते कार्य स्थल पर औरतों के उत्पीड़न-छेड़छाड़ की अनिवार्य-परिहार्य बुराई इ औरतों की कार्य दशा का हिस्सा बन चुकी है. इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की ‘आधुनिकता, प्रगति और सभ्यता’ के इस दौर में भी इन फैक्ट्रियों में औरत पर यौनिक, दैहिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक उत्पीड़न- 19वीं-20वीं सदी के औपनिवेशिक उत्पीड़न को भी मात करता है. सुपरवाइजरों द्वारा रोज तमाम बहानों से इन औरतों को जलील करना, उन पर शारीरिक प्रहार करना आम बात है. उत्पादन लाइ की किसी भी छोटी-बड़ी गलती के लिए, चाहे वह मशीन की, तकनीकी या किसी की भी क्यों न हो, अधूरे कपड़ों को औरतों के मुंह पर दे मारना, उनको धक्का देना, थप्पड़ मारना, अश्लील यौनिक गालियां देना पुरुष सुपरवाइजरों के ‘सुपरविजन’ का नियमित तरीका है. अगर कोई औरत कामगार इन जलालतों का विरोध प्रतिवाद करने की हिमाकत करती है, सार्वजनिक जलालत उसका इंतजार कर रही होती है- उसे या तो सबके सामने सारे दिन सर झुकाकर खड़े रहने की सजा मिलती है, या फिर उसे उस दिन कोई काम नहीं मिलता. दोनों का मतलब पूरे दिन को मजदूरी का काट लिया जाना है. ये ‘अनुशासन’ के वे ‘आधुनिक वैज्ञानिक’ तरीके हैं जिनसे फैक्ट्री प्रबंधन अपने उद्योग में ‘औद्योगिक संबंध और सौहार्द’ की मिसाल कायम करता है.

इन जलालतों को बर्दाश्त न कर पाने के चलते हर साल दर्जनों औरतें आत्म हत्या कर लेती हैं. यह सिर्फ छोटी-मोटी फैक्ट्रियों में ही नहीं, बल्कि बड़ी-बड़ी ब्रांडेड फैक्ट्रियों में भी होता है. अम्मू, रेणुका जैसी न जाने कितनी औरतें आत्म हत्या कर चुकी हैं. दो बच्चों की मां, अम्मू ने फैक्ट्री के टॉयलेट में आत्महत्या कर ली. 18 साल की रेणुका घर में फंदा लगाकर झूल गई. इन फैक्ट्रियों के मालिक इन सबसे बेपरवाह अकूत काली-सफेद कमायी में लगे रहते हैं- श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए. अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड जो अपने कारपोरेट सामाजिक दायित्व की ठोल पीटते नहीं थकते, इन शोषणकारी-हत्यारी फैक्ट्रियों से न तो माल लेने में कोई शर्म है और न ही वे कभी इन शोषण-हत्याओं की जिम्मेदारी लेने को तैयार होते हैं. कर्नाटक और केंद्र सरकार दोनों के लिए ऐसे किसी शोषण-हत्या का अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि उनके श्रम निरीक्षक, आडिटर, मालिकों से मोटी रकमें लेकर कागज पर ‘उत्कृष्ट औद्योगिक वातावरण’ की पुष्टि करते रहते हैं.

गारमेंट फैक्ट्रियों के उत्पादक-ठेकेदार अपना मुनाफा बढ़ाते जाने की गरज से फैक्ट्री क्षमता से ज्यादा कामगार काम पर लगाते चले जाते हैं. नतीजा अंधेरा, घुटन और काम के दौरान गश खाकर गिर पड़ना. कामगारों पर काम का इस कदर दबाव होता है, कि वे सुपरवाइजरों द्वारा दिए गए दिहाड़ी कोटे को पूरा करने के लिए गर्मी और उमस के बावजूद दिन-भर पानी तक नहीं पीतीं, जिससे टॉयलेट जाने में दस मिनट का समय बर्बाद न हो.

गारमेंट उद्योग की ये कामगार औरतें ज्यादातर ग्रामीण अंचलों से आती हैं. ये वे कम उम्र की, ज्यादातर अविवाहित लड़कियां हैं, जो इस तरह के असुरक्षित शोषणकारी कार्य दशाओं में, आवास और आवागमन की सुविधा से दूर काम करने के लिए मजबूर हैं. इन्हें यह भी पता नहीं होता कि अगली सुबह जब वे घर का काम-काज जैसे-तैसे निपटाकर भागी-भागी फैक्ट्री के दरवाजे पर पहुंचेगी, उन्हें घुसने को मिलेगा भी या नहीं. अक्टूबर 2009 में कोन्नेगा इंटरनेशनल की नौ सौ कामगार औरतों की रोजी-रोटी छिन गयी जब फैक्ट्री मालिक अचानक फैक्ट्री बंद करके नौ-दो ग्यारह हो गया. गारमेंट उद्योग में ज्यादातर कामगार औरतें किसी स्थायी या नियमित संविदा पर नहीं होती, उनका कोई लिखित रोजगार अभिलेख नहीं होता. बहुत बार वे तीन-तीन महीने की ‘रिवाल्विंग’ संविदा पर होती हैं. ऐसे में काम दशाओं की सुविधाओं और अधिकारों की बात भी करना बेमानी है. जब ‘आर्डर’ की भरमार रहती है, इन औरतों से बारह सोलह घंटे काम लिया जाता है. ज्यादातर मामलों में उन्हें कोई ओवर टाइम नहीं मिलता : दूने दर से ओवर टाइन की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती. काम का बोझ उन्हें न जाने कितनी जटिल बीमारियां : रीढ़ की तकलीफ, सांस की तकलीफ, पेशाब करने न जाने से किडनी की गड़बड़ी, टीबी, कैंसर आदि देता है और अंतत: समय से पहले मौत भी. किसी भी छोटे से छोटे बहाने से गैरकानूनी ढंग से काम से निकाला जाना आम बात है. कुशल कारीगरों की मासिक पगार पांच हजार और अर्धकुशल ‘हेल्परों’ की चार हजार दिखायी जाती है. किसी और बेहतर रोजगार के लिए इन औरतों के पास जरूरी शिक्षा और प्रशिक्षण नहीं होता. यहां आने से पहले इनमें से काफी सारी लड़कियां अपने गांव में घरेलू और कृषि श्रम में हिस्सा बटाती थीं. कुछ तेंदूपत्ता-बीड़ी रोल करने का काम करती थीं. कुछ शहरों में घरेलू नौकरानी की खटनी करती थीं. विवाहित औरतों की स्थिति में उनके आदमी ज्यादातर सब्जी बेचने, कुली, बढ़ई या खेतिहर मजदूर का काम कर रहे होते हैं. चार से पांच हजार के मासिक वेतन की व्यावहारिक सच्चाई यह है कि महीने भर में अनगिनत बहाने और खामियां निकालकर प्रबंधन उन्हें मुश्किल से 1500-2000 रुपए देता है. रोजगार की असुरक्षा इतनी है कि करीब 10 प्रतिशत कामगारों की रोज छंटनी और नई भर्ती होती है. जरूरत पर भी ये औरतें छुट्टी लेने की हिम्मत नहीं जुटा पातीं. तीन दिन से ज्यादा छुट्टी का मतलब आम तौर पर काम से हमेशा के लिए छुट्टी. काम पर जाने के लिए फैक्ट्री की ओर से ट्रांसपोर्ट तो सोचा भी नहीं जा सकता. महंगाई के चलते इनके लिए बंगलोर शहर में रहना संभव नहीं. ऐसे में ये औरतें पास पड़ोस के ग्रामीण इलाकों-बस्तियों से रोज मीलों पैदल चलकर या कभी मिल गया तो सार्वजनिक परिवहन के जरिए आती-जाती हैं.

ज्योतिमा ऐसी ही एक गारमेंट फैक्ट्री में काम करती है. उसका काम का दिन 8.30 सुबह से शुरू होता है . अगर वह एक मिनट भी लेट हो जाती है तो सुपर वाइजर उसे एक से दो घंटे खड़ा रखता है और काम नहीं देता. जाहिर है इस एक-दो घंटे की उसकी पगार काट ली जाती है. समय के नुकसान की भरपायी के लिए वह देर तक ओवर टाइम करती है और अमूमन उसका काम का दिन 9.30 बजे रात में खत्म होता है. हर दिन वह काम पर इस डर के साथ जाती है कि कहीं किसी बहाने से उसे निकाल न दिया जाय. उसे कोई पहचान पत्र भई नहीं मिला है. ग्रेच्यूटी-पेंशन की बात? क्यों जले पर नमक छिड़कते हैं?

बत्तीस साल की सांथी बाई एक फैक्ट्री की ‘फाइनल चेकर’ बताती है : ‘फैक्ट्री में आडिट होता तो जरूर है मगर आडिटर शायद ही कभी कामगारों से हालत दरयाफ्त करने आते हों. वे बस बाहर से फैक्ट्री का चक्कर मार कर मैनेजर के केबिन में बैठ जाते हैं. कभी-कभार आडिटर या फिर खरीदार कंपनी के लोग बात करने आ भी जाते हैं. इसकी पहले से तैयारी हो जाती है. सुपरवाइजर तय कर देता है कि कौन कामगारर बात करेगा और क्या कहेगा. कामगारों को काम की जगह उस दिन खूब साफ-सुथरी रखने को कहा जाता है.’ एक कामगार मंजुला ने बताया कि उससे कहा गया कि वह अपनी मजदूरी 130/- रुपए रोज और काम के खत्म होने का टाइम 5.30 बजे शाम बताए. दोनों बातें पूरी तरह से झूठी थीं. बात-चीत के समय सुपरवाइजर और उसके दो-एक मुस्टंडे बराबर मौजूद रहते हैं.’

आदमी और औरत की काम की दशाओं, काम की प्रकृति और काम के पगार सभी में बहुत अंतर है. औरतों के लिए प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं होने और कम पढ़ी-लिखी होने के चलते पुरुष कामगारों की तुलना में बेहतर काम की दशाओं, बेहतर मजदूरी, छुट्टी और अन्य बुनियादी सुविधाओं, पेशागत सुरक्षा-संरक्षा, प्रोन्नति आदि के अवसर करीब-करीब नदारद हैं.

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