चुप मूवी समीक्षा: कबीर का एक प्रस‍िद्ध दोहा है, ‘निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छ‍िवाय, बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय…’ यानी ऐसे लोग जो आपकी आलोचना करें उन्‍हें हमेशा साथ रखना चाहिए क्‍योंकि वह आपके स्‍वभाव को अपनी अलोचना से हमेशा उत्तम बनाते रहे हैं. कबीर के इन ‘निंदको’ को स‍िनेमा की दुनिया में क्रिट‍िक्‍स यानी समीक्षक कहा जाता है और ये क्रिट‍िक्‍स अक्‍सर अपनी राय से लोगों दर्शकों को प्रभाव‍ित करते हैं. सालों से अलग तरह का सिनेमा बनाते आ रहे निर्देशक आर. बाल्‍की की फिल्‍म ‘चुप: र‍िवेंज ऑफ द आर्ट‍िस्‍ट’ इन्‍हीं क्रिट‍िक्‍स की ‘स‍िलस‍िलेवार हत्‍या’ की कहानी है.

क्‍या कहती है कहानी
फिल्‍म ‘चुप’ कहानी है एक सीरियल किलर की, जो बड़ी सफाई से हफ्ते दर हफ्ते उन क्रिटिक्स की हत्‍या कर रहा है जो किसी फिल्म को बेहद कम स्टार दे रहे हैं. इस सीरियल क‍िलर का हत्‍या करने का तरीका इतना हैरान करने वाला है कि पुल‍िस अधिकारी बने सनी देओल भी इसे पकड़ने के लिए बौखला जाते हैं. पुल‍िस की परेशानी और भी तब बढ़ जाती है जब उससे जल्‍द ही ये केस छ‍िनकर सीबीआई तक पहुंचने की बात होती है. फिल्‍म में जाकर जान‍िए कौन है ये सीरियल क‍िलर और आखिर इस कहानी का गुरूदत्त से क्‍या कनेक्‍शन है.

दुलकर सलमान, श्रेया धनवंतर‍ि की शानदार परफॉर्मेंस
‘चुप’ एक बढ़‍ि‍या फिल्‍म है, ज‍िसमें खूबसूरत फ्रेम्‍स, कहानी-कॉन्‍सेप्‍ट का नयापन मुझे काफी भाया. इस कॉन्‍सेप्‍ट को लेकर कहानी को पर्दे पर उतारने में ही बाल्‍की साहब ने कई नंबर तो बटोर लि‍ए हैं. उनकी इस फिल्‍म के बाकी नंबर ले जाते हैं दुलकर सलमान. दुलकर इस फिल्‍म की जान हैं, दरअसल ये उन्‍हीं की कहानी है. पर्दे पर उसकी खुद से ही बात करने के आदत के बाद भी और उसके क‍िरदार से कुछ ह‍िंट म‍िलने के बाद भी आपको पर्दे पर उनसे हर बार प्‍यार हो जाएगा. श्रेया धनवंतरी भी स्‍क्रीन पर द‍िल जीतने का ही काम कर रही हैं. अपने क‍िरदार, अंदाज और अपने ‘सलीके के पत्रकार’ होने के क‍िरदार को श्रेया ने बखूबी न‍िभाया है.

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फिल्‍म ‘चुप’ कहानी है एक सीरियल किलर की.

साइको है, थ्र‍िलर नहीं है
फिल्‍म में पहले ही सीन से आपको सनी देओल नजर आएंगे और काफी अलग तरह के सनी देओल. ऐसे पुल‍िसवाले ज‍िसके पास द‍िमाग है, गुस्‍सा तो है ही और साथ ही वह सटल-ह्यूमर भी कर रहा है. पूजा भट्ट का क‍िरदार कुछ देर के ल‍िए ही है पर वह अपने रोल में अच्‍छी लगी हैं. फिल्‍म की स्‍क्रीनप्‍ले भी मजेदार है, और कुछ फ्रेम्‍स तो बेहद खूबसूरती के साथ तैयार क‍िए गए हैं. लेकिन क्‍योंकि ये फिल्‍म एक साइको थ्र‍िलर है, तो साइको का अंदाज तो पूरी तरह नजर आया है लेकिन थ्र‍िल जैसा इस फिल्‍म में ज्‍यादा कुछ नहीं है. आपको पुल‍िसवालों से पहले पता होता है कि क‍िलर कौन है. सस्‍पेंस जैसा ज्‍यादा कुछ इस फिल्‍म में दर्शकों के ल‍िए नहीं है, क्‍योंकि वो स‍िर्फ पुल‍िस के ल‍िए ही बचा कर रखा गया है.

इस फिल्‍म को देखते हुए मेरे आसपास कई पत्रकार बैठे थे, और जैसे ही इंटरवेल हुआ हर कोई एक-दूसरे से पूछ रहा था कि इस फिल्‍म को क‍ितने स्‍टार दोगे भाई… एक आध स्‍टार कम दे द‍िया तो सोच लेना क्रिट‍िक्‍स सुरक्ष‍ित नहीं हैं. कुछ क्रिट‍िक्‍स ने तो अपने र‍िव्‍यू में मजाकिया अंदाज में इस बात का ज‍िक्र भी क‍िया है कि भई इसे कम स्‍टार नहीं दे सकते. लेकिन मेरी द‍िक्‍कत इसी मजाक से और इसी व‍िचार के पसरने से शुरू होती है. सिनेमा एक सब्‍जेक्‍ट‍िव विषय है. किसी फिल्म को आप किस मन: स्‍थ‍ित‍ि में देख रहे हैं, क‍िस माहौल में देख रहे हैं, ये सब क‍िसी फिल्‍म के अनुभव को तय करने में काफी मायने रखता है. जैसे कई बार क‍िसी फिल्‍म के बेहद खराब जोक्स भी दोस्तों के साथ मजेदार लगते हैं, वहीं दूसरी तरफ कई बार मजेदार जोक्स भी मूड खराब होने पर पसंद नहीं आते. स‍िनेमा, फिल्‍में एक अनुभव है और यही बात अक्‍सर क्रिट‍िक्‍स अपने र‍िव्‍यूज में करते हैं कि ऐसा अनुभव हुआ या मुझे ये फिल्‍म ऐसी लगी…

इस फिल्‍म की बात करें तो कला और कथानक पर मेरी दो अलग-अलग राय हैं. कला के पक्ष ज‍िनका मैं ज‍िक्र ऊपर कर चुकी हूं, ये एक अच्‍छी फिल्‍म है और इसे जरूर देखा जाना चाहिए. लेकिन इसके कथानक और क्‍लाइमैक्‍स में ‘हिंसा के जस्‍ट‍िफ‍िकेशन’ से मैं ब‍िलकुल इत्तेफाक नहीं रखती. फिल्‍म के एक सीन में पूजा भट्ट समझाती हुई नजर आ रही हैं, ‘साइको क‍िलर अमूमन 4 तरह के होते हैं. ज‍िनमें से एक तरह के साइकोक‍िलर अपने क्राइम को जस्‍ट‍िफाइ करने के ल‍िए उसे एक म‍िशन से जोड़ लेते हैं. वो कोई न कोई ऐसी वजह ढूंढते हैं कि उन्‍हें ऐसा लगता है कि जो वह कर रहे हैं, वह सही है और यही न्‍याय है.’ हम साइको क‍िलर की इसी मानस‍िकता को फिल्‍म के क्‍लाइमैक्‍स में जस्‍ट‍िफाइ कर रहे हैं.

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चुप में सनी देओल और पूजा भट्ट भी नजर आ रहे हैं.

आप र‍िसर्च कीज‍िएगा, क्‍योंकि न‍िर्देशक साह‍ब ने उतनी नहीं की
हिंदी सिनेमा में ‘कागज के फूल’ से लेकर ‘अंदाज अपना अपना’ तक कई फिल्‍में ऐसी रही हैं जो रिलीज के समय सिर्फ क्रिटिक्स ही नहीं दर्शकों द्वारा भी नकार दी गईं हैं, जबकि वहीं कई फिल्मों का इतिहास ऐसा है जिन्हें रिव्यू भले ही अच्छे नहीं मिले हों लेकिन दर्शकों से भरपूर प्यार मिला है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल ही में आई ‘कबीर सिंह’ है ज‍िसकी भरसक आलोचना हुई, लेकिन कोई ‘र‍िव्‍यू’ इस फिल्‍म को असफल नहीं बना सका. साथ फिल्‍म में गुरूदत्त साहब की तथाकथित आत्‍महत्‍या को भी ‘कागज के फूल’ की असफलता से जोड़ा है. लेकिन बता दूं कि ‘कागज के फूल’ उनकी आखिरी फिल्‍म नहीं थी. बाकी थोड़ा र‍िसर्च आप खुद कीज‍िए, क्‍योंकि न‍िर्देशक साबह ने उतना क‍िया नहीं है. आर. बाल्‍की की ‘चुप’ की बात करें तो इसके आइड‍िया पर भले ही खूब बात हो सकती है, पर एक फिल्‍म के तौर पर ये एक अच्‍छी फिल्‍म है और इस पहलू को भी दर्शकों के सामने जरूर आना चाहिए. मेरी तरफ से इस फिल्‍म को 3 स्‍टार और इन स्‍टार्स में आप दुलकर और श्रेया काफी सारा क्रेड‍िट दे सकते हैं.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

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