मूवी समीक्षा पर: पड़ा (Pada) फिल्म के टाइटल सीक्वेंस में ही जंगल में एक छोटा बच्चा लकड़ी से चींटियों की बाम्बी को तोड़ने की कोशिश कर रहा होता है जब उसकी बहन उसे ऐसा करने से रोकती है और दर्शक समझ जाते हैं कि वो एक ऐसे फिल्म देखने वाले हैं जिसके घाव गहरे हैं. ज़ख्म आज भी ताजा हैं और उनमें दर्द आज भी उतना ही है. आदिवासियों पर अत्याचार सिर्फ हमारे देश की ही नहीं दुनिया के हर देश की असलियत है. पृथ्वी पर किसका हक है, इस सवाल का कोई जवाब हो नहीं सकता. अगर इंसान का हक है तो फिर हर इंसान का हक है. किसी का कम या किसी का ज्यादा हक हो ऐसा तो नहीं सकता. यदि इंसान का हक है तो फिर जानवरों का भी हक है. किसी जानवर का ज्यादा और किसी का कम हो नहीं सकता.

जानवरों का हक है तो पेड़ पौधों का भी हक है, लेकिन अपना वर्चस्व कायम करने के लिए इंसान ने धरती और प्रकृति को अपनी मिलकियत समझ लिया है. इसका शोषण करते करते लालच की एक ऐसी परिपाटी बन कर गयी है जिसमें इंसान पेड़-पौधों और जानवरों को तो कुछ समझता ही नहीं बल्कि दूसरे इंसानों की जान को भी ख़त्म करने में उसे कोई संकोच नहीं होता. पड़ा एक ऐसी ही परिपाटी को तोड़ने के एक और असफल प्रयास की कहानी है. फिल्म असली घटनाओं पर आधारित है तो फिल्म का मज़ा कई गुना हो जाता है क्योंकि फिल्म में बहुत मुश्किल से एकाध दृश्य नज़र आता है जो थोड़ा फ़िल्मी है.

केरल के पलक्कड़ जिले की है कहानी
कहानी 1996 में केरल के पलक्कड़ जिले की है जहा 4 व्यक्ति कलेक्टर ऑफिस में घुस जाते हैं और एक रिवॉल्वर और कुछ बमों की मदद से कलेक्टर को उसी के ऑफिस में बंधक बना लेते हैं. वजह होती है 1975 का केरल का अनुसूचित जनजाति या आदिवासी एक्ट. अप्रैल 1975 में केरल के मुख्यमंत्री सी अच्युत मेनन और नेता प्रतिपक्ष ईएमएस नम्बूदिरीपाद ने मिल कर केरल अनुसूचित जनजाति (भूमि हस्तांतरण और अन्यसंक्रान्त भूमि की बहाली पर प्रतिबन्ध) बिल पास किया था. इसमें 26 जनवरी 1960 के बाद केरल के आदिवासियों द्वारा गंवाई हुई सारी ज़मीन उन्हें लौटाने का वादा था. कई सालों तक इस वायदे का कुछ नहीं हुआ. हर साल इन आदिवासियों को मुआवज़ा भी मिलना था जो करोड़ों रुपये में था और उन तक कभी पहुंचा ही नहीं. इस बात से खफा कम्युनिस्ट विचारधारा के कुछ लोगों ने मिल कर ये प्लान बनाया था कि कलेक्टर को बंधक बना लेंगे और किसी तरह से सरकार से अपनी मांगें मनवा लेंगे.

राकेश कान्हगड बन गए रमेश कान्हगड
सत्य घटनाओं का थोड़ा नाटकीकरण किया गया और इस फिल्म की रचना की गयी. इसे सच के काफी करीब रखने के प्रयास में किरदारों के नाम भी असली व्यक्तियों से मिलते जुलते रखे गए हैं. राकेश कान्हगड बन गए रमेश कान्हगड (कुंचाको बोबन), अजयन मन्नूर बन गए अरविंदन मन्नूर (जोजू जॉर्ज), बाबू कल्लारा बने बालू कल्लारा (विनायकन), विलायती शिवनकुट्टी बने नारायणकुट्टी (दिलीश पोथन) और इसी तरह से कुछ और किरदार फिल्म में शामिल किये गए हैं. इन चारों अभिनेताओं का काम काबिल-ए-तारीफ नहीं कहा जा सकता क्योंकि ये एक पल के लिए भी अभिनय करते हुए जान नहीं पड़ते. ऐसा लगता है कि निजी ज़िन्दगी जी रहे हैं, खास कर जोजू जॉर्ज और दिलीश पोथन. सहज और सरल. एकदम दिल को छू जाने वाला. पलक्कड़ के कलेक्टर का नाम अजय श्रीपाद डांगे क्यों रखा गया है उसके पीछे संभवतः लेखक-निर्देशक कमल केएम कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के संस्थापक सदस्य श्रीपाद अमृत डांगे को याद कर रहे होंगे.

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सच पर बनी कहानी में सच का नाटक नहीं रखा गया है और इसलिए ये कहानी सशक्त लगती है. कलेक्टर जब बंधक होता है तो बंधक बनानेवाले चरों किरदार उस से बड़े ही अदब से पेश आते हैं. अपनी मांगें सख्ती से रखते हैं लेकिन वो कलेक्टर के साथ बदसलूकी नहीं करते. उन्हें जब कानून का हवाला दिया जाता है तो वो भी कानून के अपने ज्ञान को बेधड़क हो कर सामने रखते हैं. आखिर में जब मध्यस्थता करने वाले वकील और फिर सेशन जज जब उन्हें कानूनी प्रक्रिया का हवाला दे कर बंधक को छोड़ने के लिए कहते हैं तो दर्शक जान जाते हैं कि ये वादा कभी पूरा नहीं होगा लेकिन फिर भी सिस्टम की अच्छी पर यकीन करने वाले ये चारों शख्स कलेक्टर को रिहा कर देते हैं, जज की बातें मान लेते हैं. वो तो वकील की चतुराई से इन चारों को उस वक़्त कोई सजा नहीं होती लेकिन बाद के सालों में पुलिस ने उन्हें खतरनाक अपराधी का दर्जा दे कर उन्हें खोज निकलने की मुहीम शुरू की. ये सभी अपराधी फिर अलग अलग शहरों और गाँवों में भागते रहे.

कन्नड़ फिल्म 1978 की कहानी
पड़ा एक ऐसी फिल्म है जिसका असर शायद बहुत दिनों तक न रहे क्योंकि इसमें ड्रामा की जगह नहीं थी. कुछ इसी तरह की कहानी कन्नड़ फिल्म 1978 की थी जहां अपने पति की पेंशन पाने के लिए फिल्म की हीरोइन यग्ना शेट्टी पूरे ऑफिस को मई कर्मचारियों के बंधक बना लेती है. उस फिल्म में काफी ड्रामा था और उसमें भी कई जगह सच के हिस्से डाले गए थे लेकिन पड़ा तो पूरी तरह सत्य पर आधारित है. आदिवासियों के अधिकार अभी तक उन्हें मिले नहीं हैं. आज भी हर सरकार वायदा तो करती है अपने चुनावी मैनिफेस्टो में लेकिन इस वायदे पर कभी अमल नहीं होता. पूंजीपति बिजनेसमैन, उर्वरा ज़मीन और नेचुरल रिसोर्सेज का दोहन करने के चक्कर में सरकार के माध्यम से इन गरीब आदिवासियों को उन्हीं की ज़मीन से भगाती रहती है. आदिवासी कई बार लड़ते हैं और नक्सलवादी भी घोषित कर दिए जाते हैं लेकिन अपनी ज़मीन की रक्षा के लिए उनका साहस किसी भी सैनिक के साहस से कम नहीं माना जा सकता.

अभिनय में सब एक से बढ़कर एक मंझे हुए कलाकार हैं जो यूं लगता है कि भीड़ में से निकल कर आ गए हैं. उनकी सहजता किसी भी अभिनेता को आईना दिखाने के लिए काफी है. फिल्म के सिनेमेटोग्राफर समीर ताहिर की सिनेमेटोग्राफी भी बढ़िया है और एडिटर शान मोहम्मद का काम तो फिल्म की रफ़्तार को बनाये रखता है. लेखक निर्देशक कमल केएम की पहली फिल्म आय.डी. भी एक बेहतरीन थ्रिलर थी और पड़ा के साथ उन्होंने अपनी एक खास जगह बना ली है. फिल्म पड़ा एक बेहतरीन फिल्म है, और इसकी एक खास बात, फिल्म देखते हुए आप फिल्म में डूब जाते हैं, किरदारों से जुड़ जाते हैं और फिर जब फिल्म ख़त्म होती है तो एक खालीपन महसूस करते हैं. ऐसी फिल्में कम बनती हैं.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

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