फ़िल्म समीक्षा ‘आउट ऑफ़ डेथ’: फिल्म निर्देशन सभी को लगता है कि एक बड़ी आसान प्रक्रिया है. लेखक लिख लेगा, सेट डिज़ाइनर सेट बना देगा, एक्टर डायलॉग यादकर के आएंगे और एक्टिंग तो उनको आती ही होगी, कैमरा वाला सही जगह कैमरा रख के शूटिंग कर लेगा. म्यूजिक वाला म्यूजिक दे देगा और एक्शन के लिए एक्शन डायरेक्टर, डांस के लिए कोरियोग्राफर. दरअसल, निर्देशक का काम सबसे कठिन होता है. वो पूरे सर्कस का रिंग मास्टर होता है. सबसे किस वक़्त क्या काम लेना है और कैसे लेना है ये जानने वाला सिर्फ निर्देशक ही होता है.

इस बात को सब अक्सर भूल जाते हैं और फिल्म निर्देशन का ज़िम्मा उठा लेते हैं. जैसे संगीतकार माइक बर्न्स ने उठाया, अपनी पहली फीचर फिल्म “आउट ऑफ़ डेथ” को निर्देशित करने का. कुल जमा 9 दिन में शूट की गयी ये फिल्म इतनी बकवास और बचकानी है कि दर्शक को डेढ़ घंटे की ये फिल्म झेलने में भी परेशानी होती है. अमेजन प्राइम पर रिलीज़ इस फिल्म को देखना कतई ज़रूरी नहीं है, क्योंकि हो सकता है कि आप किसी भी नवोदित निर्देशक की फिल्में देखने से तौबा कर लें.

बिल लॉरेंस की लिखी ये पहली फिल्म है और इसलिए कहानी अधकचरा है. शहर से दूर स्थित एक कसबे में पुलिस का वर्चस्व होता है. पुलिस चीफ को शेरिफ बनना है इसलिए वो अपने पुलिस स्टेशन की टीम के साथ ड्रग्स का धंधा और अन्य अवैध काम करता है. उसकी टीम की एक लड़की एक ड्रग डीलर को गोली मार देती है और उस वक़्त जंगल में ट्रेकिंग पर आयी एक लड़की अपने कैमरे से इस घटना को कैद कर लेती है. पुलिस की टीम इस लड़की को जंगल में तलाशने की शुरुआत कर देती है. दूसरी ओर शहर से आये एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी अपनी पत्नी की मौत के बाद, अपनी भतीजी के पास समय बिताने आते हैं और न चाहते हुए भी वो इन सब में शामिल हो जाते हैं. फिर जैसा होता है, बुरों का अंत होता है और अच्छे लोग विजयी होते हैं.

फिल्म लिखने वाले ने बिलकुल दिमाग नहीं लगाया है. फिल्म की नायिका और नायक दोनों ही पहली बार जंगल में आये हैं, लेकिन वो जितनी आसानी से जंगल में घूमते फिरते हैं ऐसा लगता है कि उनको इस जंगल का चप्पा चप्पा पता है. दूसरी ओर जहां पुलिस को जंगल की जानकारी होनी चाहिए, वो नायिका को जंगल में ढूंढ ही नहीं पाते। पुलिस चीफ तो जंगल के बारे में कुछ भी नहीं जानता। नायक यानि ब्रूस विलिस इस फिल्म में क्यों हैं, ये भगवान्, लेखक और निर्देशक ही बता सकते हैं. उनके पूरे शॉट्स एक ही दिन में लिए गए हैं. फिल्म के निर्देशक भी स्क्रीन पर नज़र आते हैं एक पुलिस अफसर की भूमिका में.

जल्दबाज़ी में शूट की गयी इस फिल्म में कई गलतियां हैं. ड्रग डीलर के ट्रक को जंगल में अंदर छिपा दिया जाता है लेकिन थोड़ी देर बाद वो ट्रक, सड़क के किनारे खड़ा किया नज़र आता है. जंगल में किसी के खोने का कोई डर है ही नहीं. हर शख्स बड़ी आसानी से जंगल में घुसता है और बाहर निकल आता है जब कि कई जगह मोबाइल फ़ोन काम नहीं करता है. पुलिस का चीफ अपनी ही धुन में है और उसे लगता है कि वो हर बिगड़ी बात को ठीक कर देगा, लेकिन ये सिर्फ डायलॉग में है उसके चेहरे से तो कुछ भी ज़ाहिर नहीं होता.

एक पुलिस वाला गोली खा कर मर जाता है लेकिन फिल्म की नायिका को पहले चाकू और फिर गोली से घाव होते हैं, खून निकलता है लेकिन वो फिर भी लड़ती रहती है, भागती रहती है और मज़े की बात की बात, एक दो हफ्ते में ठीक हो कर फिर ट्रेकिंग के लिए चल पड़ती है. पीटर हॉलेंड की सिनेमाटोग्राफी में भी कोई खास बात देखने को नहीं मिलती. न ही एक्शन सीक्वेंस में और न ही जंगल के दृश्यों में उन्होंने कोई नयापन या भव्यता लाने की कोशिश की है जबकि जंगल की फिल्मों में ये सब अपेक्षित रहता है. डाक्यूमेंट्री और शार्ट फिल्म एडिट करने वाले आरजे कूपर ने फिल्म को एडिट किया है. फिल्म देखते समय आप फिल्म के साथ एंगेज नहीं हो पाते तो एडिटिंग की वजह से भी आपको फिल्म की गति से कोई फर्क नहीं पड़ता.

ब्रूस विलिस को डाय हार्ड सीरीज की बेहतरीन एक्शन फिल्मों के लिए जाना जाता है और वो आउट ऑफ़ डेथ जैसी फिल्में कर के अपने प्रशंसकों को भगाने का काम कर रहे हैं. बाकी सभी का अभिनय साधारण ही है क्योंकि निर्देशक ने उनसे काम लेने में कोताही बरती है ऐसा साफ़ नज़र आता है. फिल्म के अधिकांश पक्ष कमज़ोर हैं और एक कमज़ोर कहानी होने की वजह से फिल्म महाबोरिंग बन जाती है. आप आउट ऑफ़ स्क्रीन होना ज़्यादा पसंद करते हैं बजाये ये फिल्म देखने के.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

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