‘मारण’ की फिल्म समीक्षा: अच्छे और प्रतिभावान एक्टर्स जिनकी हर फिल्म अपने आप में एक अलग ही अपील रखती है, उसकी कहानी में नवीनता होती है, उसका डायरेक्शन कमाल होता है, उनको आप अचानक एक बड़ी ही कमज़ोर, थकी हुई, बिना लॉजिक की फिल्म करते हुए देखते हैं, तो मन में ये सवाल तो उठता ही है कि शायद इस फिल्म के लिए पैसा अच्छा मिल रहा होगा, इसलिए उन्होंने ये फिल्म की होगी. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में आप किसी भी हीरो या हीरोइन से बात करेंगे तो आपको पता चलेगा कि उनमें से 99% एक्टर्स ने अपने करियर में कभी न कभी ऐसी फिल्म की है जिसकी सफलता में उनको पूरा संदेह होता है लेकिन अच्छे पैसे मिलने के चक्कर में वो फिल्म कर लेते हैं.

दक्षिण की फिल्म इंडस्ट्री भी इस से अछूती नहीं है और इसका ताज़ा प्रमाण हैं डिज्नी+ हॉटस्टार पर रिलीज़ तमिल एक्शन थ्रिलर फिल्म “मारन (Maaran)” जिसमें मुख्य भूमिका निभाई है धनुष ने. एक घिसी पिटी कहानी, एक बेहद थकी हुई पटकथा और निहायत ही व्यर्थ किस्म का डायरेक्शन. मारन को अच्छा बोल कर इसकी तारीफ करने के लिए हिम्मत चाहिए.

पत्रकारिता की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म हमेशा ही कन्फ्यूज्ड नज़र आती है. क्या उसे धनुष के अभिनय का इस्तेमाल करना है या उसे धनुष की कमर्शियल स्टार वाली इमेज का फायदा उठाना है या दोनों ही बातों को मिला जुला कर कुछ बना लेना हैं? धनुष के सच्चे पत्रकार पिता को एक रिपोर्ट प्रकाशित करने की वजह से कुछ गुंडे मार देते हैं. धनुष की बहन को जन्म देते समय उसकी मां भी गुज़र जाती है. धनुष अपने मामा और छोटी बहन से साथ बड़ा होता है और एक ट्वीट की बदौलत एक न्यूज़ पोर्टल में नौकरी पा लेता है.

एक के बाद एक नए-नए खुलासे करते हुए धनुष देश के सबसे बेहतरीन युवा पत्रकारों में शामिल किया जाता है. नकली ईवीएम पर की गयी उसकी रिपोर्ट के बाद राजनेता पाज़णी उसके दुश्मन हो जाते हैं धनुष पर हमले भी होते हैं. अचानक उसकी बहन का अपहरण हो जाता है और धनुष पुलिस की मदद से उसकी तलाश करता है. कई दिनों की कड़ी मेहनत के बाद वो पाज़णी के उस गुंडे तक पहुंच जाते हैं जिसने धनुष की बहन का अपहरण किया था. मार पीट के बाद वो गुंडा धनुष के सामने एक ऐसा सच लाता है जिसको सुनकर धनुष को हमेशा सच का साथ देने वाली अपनी पत्रकारिता का दुष्परिणाम नज़र आता है. अंत में पाज़णी अपने सभी गुंडों और चमचों के साथ पुलिस की हिरासत में भेज दिया जाता है, धनुष की बहन उसके पास वापस लौट आती है.

कहानी लिखी है शर्फू और सुहास की जोड़ी ने जिन्होंने पहले दो मलयालम फिल्में लिखी थी – वारथन और वायरस और दोनों ही बहुत पसंद की गयी थीं. निर्देशन कार्तिक ने इस जोड़ी के साथ स्क्रीनप्ले पर काम किया था. कहानी और पटकथा, दोनों ही लचर निकले. अपने पिता को गुंडों के हाथों मरते देख कर भी धनुष अपने पिता की तरह पत्रकारिता को ही अपना करियर चुनता है और सिर्फ एक ट्वीट की बदौलत उसकी पॉजिटिव स्टोरी हज़ारों लोग पसंद करते हैं और उसे नौकरी मिल जाती है. नौकरी में आते ही उसे एक लड़की भी मिल जाती है.

धनुष के बचपन से जवान होने तक के सफर को फिल्म से गायब कर दिया है और ये ट्रांजीशन अधूरा ही रहता है, कोई फ्लैशबैक भी नहीं दिखाया जाता. धनुष सिर्फ ब्रेकिंग न्यूज़ ही देता है, बड़ी खबरें ही करता है बाकी समय वो शराब पी कर डांस करता रहता है. उसके मन में अपने पिता की हत्या की बात का असर नज़र ही नहीं आता. धनुष की बहन का किरदार बहुत अजीब है. वो क्या काम करती है समझने में आधी फिल्म निकल जाती है जबकि वो अपने भाई के लिए बढ़िया बाइक खरीदती है. पाज़णी के गुंडे की बहन, धनुष की एक रिपोर्ट की वजह से आत्महत्या कर लेती है और वो गुंडा इसका बदला लेने के लिए धनुष की बहन को किडनैप कर लेता है. ऐसे कई बड़े बड़े गड्ढे हैं जो कहानी में भरने की कोशिश भी नहीं की गयी है.

धनुष ने इस फिल्म में कोई प्रभाव नहीं छोड़ा है. धनुष पहली बार किसी पत्रकार के रोल में स्क्रीन पर आये हैं लेकिन किसी भी तरीके से पत्रकार नज़र नहीं आते. उनकी बतौर पत्रकार काफी लोकप्रियता दिखाई गयी है, क्यों और कैसे ये बताना निर्देशक को ज़रूरी नहीं लगा है. उन्हें आग से ठीक वैसा डर लगता है जैसा नाना पाटेकर को फिल्म परिंदा में लगता था. टीवी चैनल में उनकी साथी तारा (मालविका मोहनन) और धनुष की बहन श्वेता (स्मृति वेंकट) के बीच के संवाद अच्छे बने हैं, थोड़े मॉडर्न हैं और सही भी लगते हैं.

धनुष और मालविका के बीच के संवाद के ज़रिये हास्य पैदा करने की कोशिश की गयी है जिसमें निर्देशक असफल रहे हैं. मालविका का रोल बीच में खो जाता है, और उसका क्या होता है ये बताने की ज़रुरत नहीं समझी गयी है. पाज़णी (समुथिरकणी) का किरदार भी कन्फ्यूज्ड है. वो एक पूर्व मंत्री है, लेकिन कभी वो शक्तिशाली मंत्री दिखाया गया है और कभी डरा हुआ. धनुष जिस तरह से क्लाइमेक्स में उसे पकड़वा देता है वो बहुत ही हास्यास्पद है.

कार्बन जैसी प्रसिद्ध फिल्म के सिनेमेटोग्राफर विवेकानंद संतोषम की यह दूसरी फिल्म है और उन्होंने फिल्म में कुछ भी अपनी और से नहीं जोड़ा है. एडिटर प्रसन्ना जीके की भी यही कहानी है. कई सफल फिल्में करने के बाद भी मारन फिल्म का फाइनल एडिट लम्बा और उबाऊ लगता है. हर सीन क्रमबद्ध तरीके से है, फ्लैशबैक का इस्तेमाल बहुत ही कम है और कहानी में कभी भी किसी तरह का थ्रिल नहीं दिखता क्योंकि एडिट बहुत ही साधारण तरीके से कर के फिल्म की कहानी के अनुसार जोड़ा गया लगता हैं.

निर्देशक कार्तिक नरेन की पुरानी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर काफी नाम और दाम कमाया था और इसलिए इन्हें इस फिल्म के निर्देशक के तौर पर साइन किया गया था, लेकिन कार्तिक ने इस फिल्म में कोई धमाका नहीं किया है. इस फिल्म से निराशा हाथ लगी क्योंकि न ये ठीक से पत्रकारिता को दिखा पायी और न ही कमर्शियल फिल्मों की तरह इसमें मसाला सही मात्रा में था. जीवी प्रकाश का संगीत ठीक था. टाइटल ट्रैक “पोलाडा उलगम” को धनुष ने गाया था तो लोगों ने काफी पसंद किया. इसके अलावा मारन में कुछ भी ऐसी बात नहीं थी जिस वजह से इसे किसी और फिल्म की तुलना में हिट होने का कोई मौका मिले. इस फिल्म को न देखें तो ही धनुष के फैंस के लिए बेहतर होगा.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

टैग: Dhanush, छवि समीक्षा

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