Mahaan Review:  तमिल फिल्म निर्देशक कार्तिक सुब्बाराज की पिछली फिल्म ‘जगमे थंडीरम’ की एक बड़ी समस्या थी, विस्तार. ऐसा लगता था कि वो एक वेब सीरीज को सोच कर लिखी गयी है. अब अमेजॉन प्राइम वीडियो पर उनकी हालिया फिल्म ‘महान’ देख कर लगता है कि कार्तिक में रचनात्मकता तो है लेकिन वो सिर्फ उनके दिमाग में कैद है, परदे पर नहीं उतर पाती. तमिल फिल्मों के प्रसिद्ध हीरो विक्रम और उनके बेटे ध्रुव विक्रम को लेकर एक फिल्म की कल्पना की गयी जिसमें पिता गैंगस्टर और बेटा पुलिसवाला हो, इस से बढ़िया प्लॉट क्या हो सकता है, लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी जिस कहानी पर वेब सीरीज बनायीं जानी चाहिए, उस पर फिल्म बना कर कार्तिक ने फिल्म के कॉन्सेप्ट के साथ न्याय नहीं किया और दर्शकों को एक लम्बी और ज़्यादातर हिस्सों में बोरिंग फिल्म परोस दी है. एक बार देखने के बाद दूसरी बार देखने की इच्छा नहीं होगी और पहली बार देखने का दुःख भी होगा.

कहानी ने नायक न नाम गांधी महान रखा गया, और स्कूल में 16 अगस्त की जगह उसका बर्थडे 15 अगस्त लिखा गया ताकि वह गांधी के जैसा महान बने और शराबबंदी जैसे समाज सुधार के कामों में लग जाए. गांधी महान नाम लेकर कोई भी बच्चा, किशोर या वयस्क कैसा भी क्यों न हो, हमेशा उपहास का पात्र बनेगा, ये बात फिल्म में बार बार समझ आती है. छुटपन में गांव में ताड़ी बेचने वाले के बेटे और गाँव के मवाली के साथ जुआ खेलता गांधी, अपने पिता से पिटता है और उस पर गांधी नाम की महानता लाद दी जाती है. बड़ा होकर वह कॉमर्स का एक टीचर बनता है, एक बीवी और एक बेटा भी होता है लेकिन एक शराबी भिखारी के ताने मारने पर वो एक दिन के लिए वो लॉटरी खेलता है, बार में जा कर शराब पीता है, नाचता गाता है जिसकी वजह से उसकी बीवी और बेटा नाराज़ हो कर उसे छोड़ कर चले जाते हैं. कहानी ठीक चल रही है लेकिन वो उन्हें ढूंढने का नाटक न करते हुए उस बार वाले से दोस्ती कर के शराब पीने लगता है और अपने कॉमर्स के ज्ञान का इस्तेमाल कर उसे बड़ा शराब व्यवसायी बनने में मदद करता है. धीरे धीरे समय, घटनाओं और दुर्घटनाओं के बीच, गांधी बहुत बड़ा डॉन बन जाता है. एक दिन उसे एक मेले में उसका बेटा दादा उर्फ़ दादाभाई नौरोजी (ध्रुव विक्रम) मिलता है जो स्पेशल टास्क फ़ोर्स का हेड बन कर उसके शहर में पोस्टेड होता है और उसके शराब और काले धंधों के साम्राज्य को खत्म करने के लिए आता है. बाप और बेटे में ठन जाती है. बाप दिल के हाथों मजबूर होता है और बेटा इस बात का फायदा उठाता है. एक ऐसा मौका आता है जब बाप के सभी साथी मर जाते हैं लेकिन तभी बाप की आँखों पर लगी पुत्र स्नेह की पट्टी उतर जाती है और बाप, बेटे को फंसा कर निकल जाता है. शायद एक सीक्वल की तलाश में.

आम तौर पर पिता क्रिमिनल और बेटा पुलिस वाला वाली कहानियां कम नजर आती हैं. अमिताभ बच्चन की आखिरी रास्ता में ऐसा कुछ देखने को मिला था. मिथुन की कुछ फिल्मों में भी यहीं कहानी रही है. शक्ति में पिता दिलीप कुमार पुलिस वाले हैं और अमिताभ गुंडों के साथ काम करते हैं. अजय देवगन की पहली फिल्म फूल और कांटे में भी उनके पिता अमरीश पुरी ने डॉन का किरदार निभाया था और अजय को उनकी इस बात से नफरत थी. अजय देवगन की ही फिल्म नाजायज भी कुछ इसी तरह की कहानी थी. तमिल फिल्म महान में लेखक-निर्देशक हर किरदार को सही, अच्छा या परिस्थितियों का मारा साबित करने की कोशिश करते हैं और उनके कामों को या बुरे कामों को भी जस्टिफाई करने की कोशिश करते नज़र आते हैं. ये बात सही है कि कोई भी शख्स पूरी तरह सही और पूरी तरह गलत नहीं हो सकता, फिल्मों की कमान में सही और गलत के बीच कनफ्लिक्ट ही सबसे बड़ा तीर है. इस फिल्म में हर शख्स की गलती का जस्टिफिकेशन है. इस वजह से दर्शक कंफ्यूज ही रहते हैं. इसी वजह से कई सीन ऐसे आये हैं जहाँ दर्शक पूरी तरह से जुड़ नहीं पाते और कुछ घटनाएं ऐसी भी हुई हैं जिनमें दर्शक किसी तरह की भावना का अनुभव ही नहीं करते. इसकी जगह इसे वेब सीरीज में ढाला जाता तो शायद और बेहतर मामला बन सकता था.

विक्रम मंजे हुए कलाकार हैं. उन्होंने कुछ गैंगस्टर फिल्मों में काम किया है लेकिन महान का रोल काफी अलग है. महान में विक्रम से सहानुभूति होती है क्योंकि कौन अपने बेटे का नाम ‘गांधी महान’ रखता है या उसे महात्मा गांधी बनना सिखाता है. जब उसे बचपन से ही जुआ खेलने में महारत हासिल है तो वो बड़ा हो कर जुआ क्यों न खेले? शराब न पीने वाले अचानक शराब पीने लगते हैं और लड़खड़ाते भी नहीं, ऐसा कब होता है. वो नाचते गाते हैं भी धुन पर और बिज़नेस बढ़ाने के लिए रजनीकांत की फिल्म ‘अन्नामलै’ का उल्लेख भी करते रहते हैं. साल दर साल उनकी आय बढ़ती रहती है लेकिन वो अपनी बीवी और बेटे का पता नहीं लगा पाते, जबकि उनका साला उन्हें एक फंक्शन में आमंत्रित करने भी आता है. नाचते नाचते वो अपने बेटे को पहचान लेते हैं, कुछ पंद्रह बीस साल बाद. वो भी, जब वो खुद रंगा पुता होता है. बेटे के मन में पिता के प्रति गुस्सा लाज़मी है लेकिन वो स्पेशल टास्क फ़ोर्स लीड कर रहा है मतलब उसे पुलिस की नौकरी करते हुए कुछ साल तो बीत ही गए होंगे, तो उसे दुनियादारी तो समझती ही होगी. बचपन में वो पिता की स्कूटर पैट बैठ कर घूमता है और फिल्म के पोस्टर देख कर आंख बंद कर लेता है. इतना सीधा बच्चा, अपने पिता के साम्राज्य को ध्वस्त करने के लिए आया है तो क्या उसे हिंसा का मार्ग चुनना चाहिए? जब गाँधी नाम का उसका पिता गलत रस्ते पर चला है तो दादाभाई नौरोजी नाम का ये बेटा पुलिस में क्या कर रहा है? लेखक निर्देशक भूल गए.

ध्रुव विक्रम के साथ एक अजीब इत्तेफाक है. उनकी पहली फिल्म थी आदित्य वर्मा जो कि अर्जुन रेड्डी का तमिल रीमेक थी. उनकी दूसरी फिल्म थी वर्मा जो कि अर्जुन रेड्डी का तमिल रीमेक थी. एक ही फिल्म के दो रीमेक और दोनों में ही हीरो ध्रुव विक्रम थे. महान उनकी तीसरी फिल्म ही है. अपने पिता की परछाईं भी नहीं हैं और न ही उनकी तरह देखने में कोई खूबसूरत हैं. युवा कलाकारों से तो छोड़िये उन्हें अपने पिता से ही प्रतियोगिता करनी होगी और वो शर्तिया हारेंगे. इस फिल्म में भी वो बुरी तरह हारे हैं. उनसे बेहतर रोल सत्यवान (बॉबी सिम्हा) और रॉकी (सनथ) को मिले हैं और उन्होंने पूरा दम लगा कर काम किया है. फिल्म की एडिटिंग विवेक हर्षन ने की है निर्देशक कार्तिक के पुराने साथी हैं और सिर्फ इन्ही की वजह से फिल्म में थोड़ी लय नज़र आती है वर्ना कहानी इतनी घुमावदार लिखी गयी थी कि उसमें किसी तरह की कॉन्टिनुइटी होने की उम्मीद नहीं थी. फिल्म का संगीत पहले अनिरुद्ध रविचंदर करने वाले थे लेकिन आखिर में कार्तिक ने भरोसा अपने साथी संतोष नारायणन पर ही जताया. सभी गाने ज़बरदस्त हैं, हालाँकि गानों की सिचुएशन बनायीं गयी है ऐसा साफ नजर आता है. स्कूल टीचर एकदम ब्रेक डांस वाले गाने पर नाचने लगते हैं ये देख कर अजीब लगता है. ‘नान नान’ गाने का म्यूजिक अरेंजमेंट बहुत नए किस्म का है और ‘सूरयाट्टम’ में असली ग्रामीण परिवेश की महक है. अच्छा संगीत, फिल्म को गोता खाने से भी बचा पाया है.

फिल्म में गलतियां लेखन की भी हैं और निर्देशन की भी हैं. कैरेक्टर ग्राफ बहुत ही अजीब ढंग से चलते हैं. अचानक सफलता मिलना स्वाभाविक है लेकिन जुए में या लॉटरी में जीतने का बिजनेस से कैसे सम्बन्ध बनाया गया है ये समझने में दर्शकों को कठिनाई होगी. बाप और बेटे के बीच भावनात्मक दृश्यों में नाटकीयता से सत्यानाश हो गया है. ध्रुव विक्रम को अभी अभिनय का अ-आ-इ-ई सीखने में समय लगेगा और उनके पिता के सामने तो उन्हें और भी बेहतर ढंग से रोल करना चाहिए थे. पिता पुत्र की कोई भी आदत एक दूसरे से नहीं मिलती ये देख कर और अजीब लगता है. ज़िन्दगी के 40 साल तक दब्बू और बिना किसी बुरी आदत के जीने वाले शख्स रातों रात कैसे शराब और जुआ खेलने लगता है और कैसे सिर्फ इतनी सी बात पर उनकी पत्नी और बेटा घर छोड़ कर चले जाते हैं? इस फिल्म की कहानी कोविड के लॉकडाउन में लिखी गयी और इसीलिए किसी ने इस कहानी की घटनाओं की विश्वसनीयता की जांच नहीं की, सीधे फिल्म बनाने के काम शुरू कर दिया. जगमे थंडीराम के बाद निर्देशक कार्तिक की ये एक और लचर फिल्म है. इसे बहुत देखा जायेगा क्योंकि तमिल, तेलुगु और मलयालम भाषाओँ में एक साथ रिलीज़ की गयी है हालाँकि गलतियां बहुत सारी हैं. मसाला एंटरटेनर के तौर पर देख सकते हैं.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

टैग: अमेज़न प्राइम वीडियो, छवि समीक्षा

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