समीक्षा: विदेशी फिल्मों में ‘फ्लाइट’ पर काफी एक्शन फिल्म्स बनायीं गयी हैं. इनमें से कुछ तो बहुत ही पॉपुलर भी हुई हैं. नॉनस्टॉप, पैसेंजर 57, डाय हार्ड 2, फ्लाइट प्लान, स स्नेक्स ऑन द प्लेन आदि. कुछ समय पहले एक और हॉलीवुड फिल्म 7500 में भी फ्लाइट से जुड़े हादसे का बड़ा अच्छा चित्रण किया गया था. हिंदी फिल्मों में भी कुछ प्रयास हुए हैं लेकिन अधिकांश हायजैक से जुड़े हुए हैं. नीरजा, एयरलिफ्ट, हायजैक, हवाइज़ादा और हालिया गुंजन सक्सेना. हिंदी फिल्मों में फ्लाइट के भीतर होने वाली गड़बड़ियों पर कोई सशक्त एक्शन फिल्म देखने को नहीं मिली है. पिछले महीने अमेज़ॉन प्राइम वीडियो पर रिलीज़ “फ्लाइट” में संभवतः पहली बार फ्लाइट के अंदर की एक्शन का एक नया स्वरुप देखने को मिला है. फिल्म में कुछ कमियां ज़रूर हैं लेकिन हिंदी फिल्मों में इस तरह का एक्शन पहली बार देखने को मिला है.

रणवीर मल्होत्रा (मोहित चड्ढ़ा) अपने पिता की हवाई जहाज बनाने की कम्पनी में हुए बड़े भ्रष्टाचार का खुलासा करने से पहले दुबई जा कर इन्वेस्टर से मीटिंग करने निकल जाता है. कंपनी के भ्रष्ट अधिकारी उसे प्लेन में ही खत्म करने का प्लान बना देते हैं. फ्लाइट में जब नींद टूटती है तो रणवीर देखता है कि एयरहोस्टेस को गोली मार दी है. कॉकपिट बंद है, पैराशूट कटे हुए हैं, और किसी तरह किसी से संपर्क का कोई जरिया नहीं है. पायलट भी जवाब नहीं दे रहे हैं. यहाँ से शुरू होती है अपने आप को इस चलती फ्लाइट में ज़िंदा रखने की कवायद. क्या रणवीर फ्लाइट को बचा पाता है, क्या वो खुद ज़िंदा बच पाता है, क्या वो अपने भ्रष्ट अधिकारियों को सजा दिला पाता है; ये आगे की कहानी में है.

फिल्म एकदम रोमांचक है. निर्देशक सूरज जोशी, विज्ञापन फिल्मों की दुनिया से आये हैं और उन्हें कम समय में बड़ी बात कहने का हुनर आता है इसलिए ये फिल्म समय बरबाद नहीं करती. एक बार एक्शन शुरू होती है तो फिल्म किसी और ट्रैक पर जाती ही नहीं है. सूरज ने फिल्म के हीरो और मित्र मोहित चड्ढ़ा और बबिता आशीवाल के साथ मिलकर कहानी लिखी है. कहानी पर मेहनत की गयी है क्योंकि हर दृश्य कसा हुआ है और एक भी किरदार यूं ही स्क्रिप्ट में घुसा नहीं आता. मोहित ने 2004 में ज़ी सिनेस्टार की खोज नाम के रियलिटी शो में फर्स्ट रनर अप होने का गौरव हासिल किया था. उन्होंने तमिल, तेलुगु और कुछ हिंदी फिल्मों में अभिनय किया है. दिखने में काफी खूबसूरत हैं और पर्सनालिटी भी बढ़िया है. एक रईस ऐरोप्लाने मेकिंग कंपनी के सीईओ के रूप में अच्छे लगते हैं और पूरी फिल्म में किरदार से बाहर नहीं गए हैं. कोई सुपर हीरो एफर्ट या एक्शन नहीं किये हैं. साथ में पवन मल्होत्रा जैसे मंजे हुए अभिनेता हैं जिनकी भूमिका छोटी है मगर अत्यंत आवश्यक है. जब रणवीर का प्लेन गायब हो जाता है तो वो कोई कदम ऐसा नहीं उठाते जो कि उनके रोल के अनुसार न हो. वो बगैर चीखे चिल्लाये, इतने संयत तरीके से सिचुएशन को सँभालने का प्रयास करते नज़र आते हैं कि उनके अभिनय की मास्टरक्लास का नमूना एक बार और देखने को मिलता है. विलन की छोटीसी भूमिका में ज़ाकिर हुसैन हैं. ज़ाकिर का चेहरा अभिनय करता है. इस फिल्म में थोड़े से सीन्स में ही उन्होंने एक बार फिर साबित कर दिया कि रोल करने से पहले रोल समझने की कितनी जरुरत होती है.

सिनेमेटोग्राफर दीपक पांडेय की ये पहली फीचर फिल्म है इसलिए उनके काम में थोड़ा कम मज़ा आता है. अधिकांश फिल्म फ्लाइट के भीतर ही शूट की गयी है इसलिए एक्शन को शूट करने में जो सावधानी बरतनी चाहिए वो नहीं दिखी है. फ्लाइट में बम फटने के बाद फ्लाइट में आने वाली अड़चनों को नजर अंदाज किया है. फ्लाइट के छेड़ को बाथटब से बंद करने का विचित्र दृश्य भी असामान्य लगता है. ऑटो पायलट पर उड़ने वाली फ्लाइट के भीतर कई मुश्किलात होती हैं जो कि सिनेमेटोग्राफर ने ठीक से फिल्मायी नहीं हैं. टीवी की दुनिया से आये एडिटर राहुल माथुर को भी इतनी बड़ी फिल्म की ज़िम्मेदारी देने से मामला थोड़ा कमज़ोर रहा है. एक पल सीक्वेंस में धड़कनें रुकी होती हैं वहीं दूसरे पल सब कुछ सामान्य नज़र आता है. फिल्म में सिचुएशन में टेंशन है भी और नहीं भी. यहां पर फिल्म के साथ जुड़ाव होते होते रुक जाता है. संगीत की गुंजाईश थी नहीं फिर भी बैकग्राउंड म्यूजिक स्मृति मिनोचा ने अच्छा बनाया है.

फिल्म काफी अच्छी बनी है. हिंदी फिल्मों में इस तरह की फिल्मों के लिए जगह हो सकती है. विक्रमदित्य मोटवाने की फिल्म ‘ट्रैप्ड’ में एक ही अभिनेता (राजकुमार राव) कैसे एक फ्लैट में बंद हो जाते हैं और किसी तरह से ना तो निकलने का और ना ही ज़िंदा रहने का कोई जरिया नजर आता है. फ्लाइट में वो बात नज़र नहीं आती. फिल्म का अंत उम्मीद के अनुसार ही है फिर भी स्पेशल इफेक्ट्स पर किये गए खर्च को पूरी तरह सही ठहराता नजर आता है. छोटी फिल्म है, लेकिन फिल्म दमदार है. देखनी चाहिए.

डिटेल्ड रेटिंग

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