दो दिन पहले आए सीबीएसई के दसवीं के परीक्षा परिणामों में पहले स्थान पर रहे 13 छात्र-छात्राएं सिर्फ़ एक नंबर से 100% अंक हासिल करने से चूक गए. आईसीएससी बोर्ड ने यह एक नंबर भी नहीं छोड़ा और दो बच्चे 100% अंक हासिल करके पहले स्थान पर रहे. ऐसे में पहला सवाल यह उठता है कि अब क्या? क्या अगली बार से अच्छे व्यवहार या 100% अटेंडेंस जैसी किसी चीज़ के लिए 10 नंबर और दिए जाएंगे… मतलब 100%+1% !!!

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90% से ज़्यादा नंबर मिलने का चलन करीब 10-15 साल पुराना ही है. तो आखिर इस समय ऐसा क्या हुआ कि 75-80% नंबर हासिल करने वाले होशियार छात्र-छात्राएं नब्बे से ज़्यादा नंबर पाने लगे? क्या पिछले कुछ साल में बच्चों के आईक्यू में अचानक उछाल आ गया है? या इसकी कोई और वजह है? क्या नंबरों की यह रेस बच्चों के लिए, समाज के लिए अच्छी है या इसका कोई और पहलू भी है? शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों से बात कर हमने इन सवालों के जवाब हासिल करने की कोशिश की…

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कैसे आते हैं 99-100% नंबर

सीबीएसई के देहरादून रीजन के डायरेक्टर रणवीर सिंह कहते हैं कि ऐसा नहीं कि 100% नंबर लाने वाले बच्चे का आईक्यू बहुत अच्छा है. दरअसल इसका अर्थ यह है कि वह फ़ोकस्ड रहा अपनी पढ़ाई पर और सिलेबस पर. इसके अलावा अब बहुत सारी चीज़ें उपलब्ध हैं. पहले न तो इतने संसाधन थे और ही इतनी गाइडेंस मिलती थी. आज के बच्चे तो खुद ही बहुत कुछ ढूंढ लेते हैं इसनें इंटरनेट भी बहुत मदद करता है.

शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले गैर सरकारी संगठन ‘प्रथम’ से जुड़े आशुतोष कहते हैं कि दरअसल पूरे सिस्टम में ही नंबरों पर इतना ज़ोर है कि मां-बाप, स्कूल और जाने-अनजाने शिक्षा बोर्ड भी इसे प्रमोट करते हैं. पहले माना जाता था कि यूपी बोर्ड में ‘टाइट मार्किंग’ होती है लेकिन अब वह भी बदल गया है और वहां भी ‘लिबरल मार्किंग’ होने लगी है.

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रणवीर सिंह इससे इनकार करते हैं वह कहते हैं कि सीबीएसई में कॉपी जांचने की प्रक्रिया इतनी मजबूत है कि इसमें गलती की गुंजाइश कहीं नहीं रहती और यह पूरी तरह पारदर्शी है.

नंबरों की यह रेस कहां ले जाएगी?

शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले गैर सरकारी संगठन अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन से उत्तराखंड प्रदेश प्रमुख कैलाश कांडपाल कहते हैं कि यह एक चूहा दौड़ सी शुरु हो गई है. अब तो बच्चों के लिए फ़र्स्ट आना भी मुसीबत हो गया है. उनसे पूछा जा रहा है कि कितनी पर्सेंटेज आई. अब तो 95 प्रतिशत नंबर लाने वाले बच्चे भी परेशान रहते हैं कि नंबर कहां कट गए.

रणवीर सिंह कहते हैं कि जो यह मैसेज जा रहा है कि मार्क्स से ही सब कुछ है, यह ठीक नहीं है. इस तरह की प्रतियोगिता को न तो बोर्ड को लाना चाहिए, न समाज को लाना चाहिए और न ही किसी शिक्षा व्यवस्था को लाना चाहिए. रणवीर सिंह कहते हैं कि यह और नहीं बढ़ना चाहिए.

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आशुतोष कहते हैं कि यह हमने यह मान लिया है कि नंबर के बिना कुछ नहीं हो सकता इसलिए मां-बाप, स्कूल तक नंबर लाने के लिए खुद नकल करवाते हैं और ख़बरों में आता है कि कई बार तो इसके लिए लड़ भी जाते हैं.

मूल उद्देश्य से भटक गई है शिक्षा?

कांडपाल कहते हैं कि नंबरों की चूहा दौड़ की वजह से शिक्षा अपने मूल उद्देश्य से भटक गई है. शिक्षा का मूल उद्देश्य होता है एक उन्नत समाज के लिए नागरिक तैयार करना जिनमें जस्टिस, लिबर्टी, एक्वेलिटी की भावना हो. मार्क्स ओरिएंटेड पढ़ाई किस दिशा में बच्चों को ले जाएगी, किस तरह का समाज बनेगा इस पर सवाल उठते हैं. बीच में जो विचार आया था जिसमें ग्रेड दिए जाते थे वह फिर भी बेहतर था. लेकिन सबसे गंभीर बात यह है कि आप संचालित किस चीज़ से होते हैं नंबरों की दौड़ आपको संचालित कर रही है या आपकी शिक्षा.

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आशुतोष कहते हैं कि अगर इस ट्रेंड को सिर्फ़ स्कूली व्यवस्था के दायरे में रखकर देखेंगे तो समझने में थोड़ी दिक्कत होगी. इसका रिश्ता हमारे समाज में भयानक प्रतिस्पर्धा के वातावरण से है, जिसमें आपकी स्किल्स, वैल्यूज़ पर कोई नज़र नहीं डाल रहा. इसमें जो आपका नापे जाने लायक उपलब्धि है- जैसे एग्ज़ाम्स- उसी पर सारा ज़ोर है. इसकी वजह से बच्चों के नंबर तो आ जाते हैं लेकिन व्यक्तित्व विकसित नहीं होता.

एक फ़ेसबुक पोस्ट का ज़िक्र करते हुए आशुतोष कहते हैं कि 10-12वीं का बच्चा जो 98% अंक हासिल करता है वह नहाने के बाद अपने अंडरवियर तक नहीं धो सकता. हम कैसी शिक्षा दे रहे हैं जो बच्चों को अपने ज़रूरी काम करना तक नहीं सिखाना चाहती. दरअसल हमारी जो आर्थिक नीतियां हैं, नौकरी देने के जो आधार हैं वही कुछ गड़बड़ हैं. यहां वैल्यूज़ की ज़रूरत नहीं है- आप स्किलफ़ुल हों, ईमानदार हों, दूसरे की इज़्ज़त करते हों, दूसरे की राय की कद्र करते- इसकी ज़रूरत किसे है?

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सीबीएसई रीजनल डायरेक्टर रणवीर सिंह कहते हैं स्कूल एजुकेशन हमारी इतनी मजबूत होनी चाहिए कि शैक्षिक तौर पर तो मजबूत रहे ही बच्चा, वह चारित्रिक तौर पर भी मजबूत हो, संवेदनशील हो, जिज्ञासु हो और सबसे बड़ी बात है कि उसका कॉन्फ़िडेंस लेवल इतना हो कि वह कुछ भी करने को तैयार रहे.  रणवीर सिंह मानते हैं कि नंबरों की इस दौड़ की वजह से शिक्षा के स्तर में कहीं न कहीं गिरावट आई है. इसे दूर करने के लिए तीन पी को मिलना होगा… पेरेंट्स (अभिभावक), प्रिंसिपल (शिक्षक) और प्यूपिल (विद्यार्थी).

उदारीकरण और नंबरों की दौड़…

क्या नंबरों की इस दौड़ और 100% की ट्रॉफ़ी का उदारीकरण से कोई संबंध है? अर्थव्यवस्था खुलने के बाद लोगों के पास पैसा आने लगा तो उन्होंने अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाने के लिए उसे खर्च करना चाहा. इस मांग की पूर्ति के लिए तेजी से निजी स्कूल खुलने लगे और अपनी मार्केटिंग के लिए उन्होंने पर्सेंटेज का गेम शुरू किया?

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इस सवाल के जवाब में कैलाश कांडपाल कहते हैं कि 90 के दशक में दो महत्वपूर्ण बातें हुई हैं. पहला तो उदारीकरण हुआ, जिससे लोगों के पास पैसा आया. दूसरा एजुकेशन फ़ॉर ऑल यानि सबके लिए शिक्षा की बात हुई. उसी दौरान बेसिक प्राइमरी एजुकेशन प्रोग्राम, ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड जैसे कई प्रोग्राम शुरू हुए बाद में सर्व शिक्षा अभियान में बदले. लेकिन इसमें एक गड़बड़ यह हुई कि सब के लिए शिक्षा की बात तो होनो लगी लेकिन हमारे पास इसके लिए तैयारी नहीं थी, हमारे पास संसाधन नहीं थे. इसका फ़ायदा उठाया बाज़ार ने और बाज़ार शिक्षा में घुस गया. हालांकि तकनीकी रुप से शिक्षा व्यवसाय नहीं है. स्कूल या तो ट्रस्ट चला सकती है या नॉन प्रॉफिट मेकिंग सोसायटी लेकिन हम सब जानते हैं कि स्कूल से ज़्यादा कमाई आज शायद हॉस्पिटल में ही है.

आशुतोष भी कहते हैं कि उदारीकरण के बाद जब लोगों के पास पैसा आने शुरु हुआ तो प्राइवेट स्कूलों, कोचिंग, ट्यूशन सेंटर भी व्यवसाय के रूप में शुरु हो गए. वह कहते हैं दिल्ली से देहरादून तक अगर आपको ‘ठीक-ठाक’ स्कूल में पढ़ाना है तो कम से कम 1,00,000 रुपये फ़ीस के देने होंगे, बाकी खर्चे अलग हैं. इसके अलावा बच्चों को ट्यूशन भी भेजना होगा. हालत तो यह है कि पहली-दूसरी के बच्चों को भी ट्यूशन भेजना पड़ रहा है और इसकी वजह है नंबरों की दौड़ जो बोर्ड परीक्षाओं का प्रेशर प्राइमरी तक के बच्चों में बना रहा है.

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शिक्षा का व्यवसायीकरण…

कैलाश कांडपाल कहते हैं कि उदारीकरण के बाद बाज़ार के शिक्षा के व्यवसायीकरण से सबसे ज़्यादा नुक़सान हुआ. इससे शिक्षा को जिस समानता पर आधारित समाज के निर्माण के लिए काम करना था वह पीछे छूट गया क्योंकि बाज़ार तो असमानता के आधार पर काम करता है. इसकी वजह पर्सेंटेज की रेस शुरु हुई क्योंकि स्कूलों ने अपनी मार्केटिंग के लिए प्रचार शुरु किया कि हमारे यहां के इतने बच्चों ने इतने पर्सेंटेज हासिल किए हैं. कई कोचिंग वाले तो दूसरी जगह से पढ़े बच्चों की तस्वीरें भी अपने टॉपर्स लिस्ट में लगाने लगे. हमारा शिक्षा तंत्र इसे पकड़ने में चूक गया.

कैलाश कांडपाल कहते हैं कि इस सबसे यह भी हुआ कि चीज़ों को ठीक करने की राजनीतिक इच्छा शक्ति खत्म हो गई. इसकी बड़ी वजह रही मिडिल क्लास. वह कहते हैं कि मिडिल क्लास बाज़ार के प्रभाव में रहता है, वह वहीं जाता है जहां बाज़ार उसे ले जाता है. इस मिडिल क्लास ने हमारे सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों को त्याग दिया है. वह प्राइवेट स्कूल और प्राइवेट हॉस्पिटल में जाता है, उसने सरकारी स्कूलों को दाल-भात का स्कूल करार दे दिया है. अब चूंकि मिडिल क्लास प्रभावित राजनीति को प्रभावित करता है इसलिए सरकारी स्कूलों में सुधार की राजनीतिक इच्छाशक्ति भी ख़त्म हो गई है.

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बच्चों पर दबाव…

रणवीर सिंह कहते हैं कि 99-100% लाने वाले बच्चों में यह भाव विकसित हो सकता है कि ‘मैं सब जानता हूं, मुझसे परफ़ेक्ट कोई नहीं है’. परिवार को इसका ख़्याल रखना चाहिए कि ऐसा न हो, उसकी सही से काउंसिलिंग करते रहें. वह कहते हैं कि दसवीं और बारहवीं के बच्चों को इतना हाइलाइट नहीं करना चाहिए कि वह ओवरकॉंफ़िडेंट हो जाए या प्रेशर में आ जाए. ऐसा प्रोत्साहन मत दीजिए कि बच्चा जो अगला कदम बढ़ाने जा रहा है टेक्निकल एजुकेशन में, उसमें लड़खड़ा जाए.

देहरादून के महंत इंद्रेश अस्पताल में मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर डॉक्टर शोभित गर्ग भी इस बात का समर्थन करते हैं. जिन बच्चों के 99-100% नंबर आ रहे हैं उन पर परफॉर्म करने का प्रेशर बढ़ जाता है. जैसे-जैसे आप पढ़ाई के ऊंचे दर्जों में बढ़ते हो तो बड़ी उपलब्धियां, अच्छा प्रदर्शन करना मुश्किल होता जाता है. इससे बच्चे में असफलता का डर बढ़ता जाता है. कहते हैं कि अति हर चीज़ की ख़राब होती है तो हमेशा 100% लाने का दबाव रहेगा तो उस पर आंतरिक दबाव बहुत बढ़ जाएगा.

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क्या बचपन खो रहे हैं टॉपर्स…

जो भी बच्चे 99-100% नंबर ला रहे हैं ज़ाहिराना तौर पर वह अपनी 100% क्षमताएं इसमें लगा रहे हैं. क्या इससे उनका बचपन नहीं छिन रहा?

डॉक्टर शोभित गर्ग करते हैं कि पढ़ाई हमें नंबर के हिसाब से नहीं करनी चाहिए, हमें उसे एक मज़ेदार प्रक्रिया बनाना चाहिए. हमारे दिमाग को ताज़ा करने के लिए जो रिसाइकलिंग होती है उसमें दो चीज़ें बहुत ज़रूरी होती हैं- पर्याप्त नींद और खेलना. अगर हम बच्चे को लगातार पढ़ाई की प्रक्रिया में डाल रहे हैं तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि बच्चा एक से दो घंटे ज़रूर खेले. इससे वह अपने दिमाग की प्रोसेसिंग को फ्रेश रख पाएगा. वरना जब बच्चा हायर लेवल पर पहुंचेगा तो उसे परेशानी हो सकती है.

….तो

कांडपाल कहते हैं कि यह नंबरों की दौड़ अभी शिक्षा और समाज को और नुक़सान पहुंचाएगी.

डॉक्टर शोभित गर्ग कहते हैं कि अगर बच्चा पढ़ाई को एन्जॉय करता है, वह विषय को ठीक से समझता है, बच्चे की अंडरस्टैंडिंग अच्छी है तो उसके 100% नहीं आ रहे हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है.

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