शुऐब शाहिद की शिनाख़्त मुल्क के एक मशहूर बुक कवर डिज़ाइनर के तौर पर होती है. कई मशहूर किताबों पर बतौर आर्टिस्ट काम करने के सबब आपकी अदबी दुनिया में एक ख़ास मकबूलियत है. मुल्कगीर और बैनुलअक़्वामी सतह पर कई अवार्ड्स के साथ आपका नाम रहा है. आपके लिखे मज़ामीन, ख़ुतूत और बिलख़ुसूस उर्दू मिज़ाह से मुताल्लिक मज़ामीन हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बहुत से रिसालों में अक्सर शाया होते हैं. इन दिनों क्लासिकल उर्दू अदब को देवनागरी रस्मुल-ख़त में लाने का तारीख़ी काम अंजाम दे रहे हैं. आज कल उर्दू के मशहूर प्रकाशन रेख़्ता पब्लिकेशंस में बतौर मुख्य सम्पादक कार्यरत हैं.
शुऐब शाहिद उर्दू साहित्य को देवनागरी लिपी में प्रस्तुत करके उसे हिंदी पाठकों तक पहुंचाने के काम लंबे समय से कर रहे हैं. देवनागरी उर्दू को लेकर उर्दू साहित्यकारों में मिलेजुले स्वर सुनने को मिलते हैं. कोई इसकी तरफदारी करता दिखलाई पड़ता है तो कोई मुखाल्फत. इस मुद्दे पर शुऐब शाहिद से लंबी बातचीत हुई. प्रस्तुत है बातचीत के चुनिंदा अंश-
आप जो ये देवनागरी उर्दू कहते हैं ये क्या है? आजकल इस शब्द का बहुतायत इस्तेमाल हो रहा है, लेकिन काफी समय पहले यह शब्द आपसे ही सुना था.
आपने पहला ही सवाल जरा बड़ा कर लिया. इसको समझाने के लिए जवाब भी थोड़ा सा बड़ा हो सकता है. हर जबान की अपनी एक लिपि होती है. जैसे हिंदी और मराठी की लिपि देवनागरी है. पंजाबी की गुरुमुखी और शाहमुखी है, उसी तरह उर्दू की लिपि फ़ारसी है. हिन्दुस्तान के बेशतर इलाको में जो जबान बोली जाती है वो न पूरी तरह हिंदी है और न ही पूरी तरह उर्दू है. ये उर्दू भी समझते हैं और हिंदी से भी उसी तरह वाकिफ हैं. दोनों ही जबानों में हमारा कल्चर घुला-मिला है. अब मसअला ये है कि उर्दू वाले तो हिंदी का भी साहित्य आसानी से पढ़ लेते हैं लेकिन हिंदी वाले महज फ़ारसी लिपि न जानने की वज्ह से उर्दू साहित्य नहीं पढ़ सकते. उन्हें इन्तज़ार होता है कि कोई उन उर्दू किताबों का तर्जुमा हिंदी में करे तो हम पढ़ें.
एक और भी बात है. हिंदी वालों में एक बड़ी तादाद है जो उर्दू को उर्दू ही की मिठास से पढ़ना चाहते हैं. वो उर्दू समझते हैं लेकिन फ़ारसी लिपि नहीं. ऐसी सूरत में देवनागरी उर्दू की जरूरत पेश आती है. उर्दू की कोई किताब अपनी ही जबान और मिठास में बनी रहे और सिर्फ उसकी लिपि को फ़ारसी की जगह देवनागरी कर दिया जाए तो उर्दू का ये बेशकीमती लिट्रेचर एक बहुत बड़े तबके तक आसानी से पहुंच सकता है.
देवनागरी उर्दू में गद्य या पद्य किस पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है?
ये दोनों ही विधाओं के लिए जरूरी है. ये बात सही है कि पिछले कुछ बरसों में नौजवानों का रुझान उर्दू शायरी की तरफ काफी बढ़ा है लेकिन इस हकीकत से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि लोग उर्दू का नस्र (गद्य) भी पढ़ना चाहते हैं. उर्दू में मीर अम्मन, मिर्ज़ा हादी रुस्वा और रतननाथ सरशार से लेकर मंटो तक बेशुमार गद्यकार हुए हैं जो जबान के लिए एक मिसाल हैं. मौजूदा वक़्त में भी शानदार उपन्यास और अफसाने लिखे जा रहे हैं जिनको लोग पसन्द कर रहे हैं.
लेकिन अगर आपका सवाल मेरे ज़ाती फोकस का है तो फिलहाल मेरा पूरा फोकस गद्य पर है. शायरी पर तो काफी काम हुआ है. प्रकाशकों ने देवनागरी में बहुत छापा भी है लेकिन गद्य में अभी बहुत कुछ है जिसको देवनागरी में लाने की सख़्त जरूरत है.
देवनागरी उर्दू क्या उर्दू लेखकों में मान्य है? इस पर उर्दू साहित्यकारों का क्या कहना है?
इस पर अभी एक राय नहीं है. उर्दू में कुछ लोग तो इससे इत्तिफाक करते हैं कि उर्दू साहित्य को देवनागरी में आना चाहिए. बल्कि उर्दू के रोमन लिप्यन्तरण पर भी इत्तिफाक करते हैं.
लेकिन एक बड़ा तबका इसके खिलाफ ही है. उनकी राय है कि इससे उर्दू की मूल स्क्रिप्ट (फ़ारसी लिपि) खत्म हो जाएगी. लेकिन मैं इस बात से सहमत नहीं हूं. किसी भी जबान का एक नई स्क्रिप्ट में फैलना जबान की तरक्की है, न कि पुरानी स्क्रिप्ट का नुकसान. मैं तो ऐसे लोगों से मिलता हूं कि जिन्होंने देवनागरी और रोमन में उर्दू को पढ़ा. शौक पैदा हुआ और अब वो उर्दू के रस्म-उल-ख़त (लिपि) को सीख रहे हैं.
इससे उर्दू के लेखकों को क्या फायदा होगा?
कोई लेखक जब लिखता है तो अपनी जबान में लिखता है. पूरे एहसास के साथ. तर्जुमा करने पर कुछ फर्क तो आता है. हालांकि तर्जुमे के उस फर्क का अपना मज़ा है लेकिन देवनागरी लिप्यन्तरण से लेखक के मूल एहसास के साथ किताब पाठक तक पहुंचती है. और ये वो पाठक हैं जो महज़ उर्दू की लिपि की वज्ह से कल तक उनके पाठक ही न थे. इससे उर्दू के पाठकों का दायरा बढ़ता है, लेखक को हिंदी का भी एक बड़ा पाठक मिलता है.
हिंदी के लोग इसको किस तरह देखते हैं?
हिंदी के लोगों ने इसका दिल खोल कर स्वागत किया है. ऐसी कई किताबें और लेखक मेरी नजर में हैं कि जिनका लिखा उर्दू वालों ने पसन्द किया और किसी-किसी को तो उर्दू वालों से ज़्यादा प्यार हिंदी वालों ने दिया है. उर्दू के क्लासिक अदब को तो हिंदी वाले उर्दू जबान और देवनागरी लिपि में ही पढ़ना पसन्द करते हैं. अगर ग़ालिब के ख़ुतूत से उर्दू जबान निकाल दी जाए तो उसमें बचता क्या है?
क्या इससे हिंदी साहित्य में देवनागरी उर्दू को मान्यता मिल पाएगी?
मान्यता का कोई तय पैमाना नहीं. लोगों का पसन्द करना, पढ़ना और सराहना ही मान्यता है. उर्दू की आधिकारिक लिपि में देवनागरी को भी शामिल कर लिया जाए ऐसा मैं नहीं कहता, न चाहता हूं. उर्दू की अस्ल ख़ूबसूरती तो उसकी अपनी लिपि ही में है. लेकिन बस इतना जरूरी है कि कोई पाठक महज़ लिपि की वज्ह से इससे महरूम न रहे.
अभी तक के अध्ययन क्या कहते हैं, कितना पॉपुलर हुआ है इस क़दम से उर्दू साहित्य?
हालांकि अभी तो जितना होना चाहिए था, काम भी उससे बहुत कम हुआ है. लेकिन जितना भी हुआ है वो पूरी तरह कामयाब रहा है. मेरी अपनी किताबें हिंदी वालों में काफी पसन्द की गई हैं. हिंदी के लोगों ने जिन लेखकों को दूर से सिर्फ देखा, वो अब उन्हें पढ़ पा रहे हैं. उन पर तब्सिरे लिख रहे हैं. देवनागरी उर्दू की इन किताबों की मीडिया में समीक्षाएं छप रही हैं. बड़े-बड़े अवॉर्ड्स के लिए चुनी जा रही हैं.
इसकी पॉपुलैरिटी का अन्दाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ बरसों में हिंदी के सभी बड़े प्रकाशकों ने इस तरह की देवनागरी उर्दू की किताबों पर काम करना शुरू किया है. इस पर पूरी-पूरी सीरीज छप रही हैं.
देवनागरी में उर्दू के आने से मूल लेखन को लेकर प्रमाणिकता किस तरह साबित होगी, मसलन अनुवाद कितना सटीक होगा?
उर्दू मूल की किताबों को देवनागरी में लाने के लिए अनुवाद नहीं, बल्कि लिप्यन्तरण से काम लिया जाता है. ये एक बहुत नाजुक काम है. देवनागरी लिखते हुए उर्दू के सही साउंड्स को बरकरार रखना जरूरी है. हालांकि अनुवाद ही की तरह ये कभी हू-ब-हू नहीं हो सकता. फ़ारसी लिपि के साउंड्स अलग हैं और देवनागरी के साउंड्स अलग. लेकिन तब भी कोशिश होती है कि करीब से करीबतर साउंड्स को बरकरार रखा जाए.
इसको एक मिसाल से समझिए. एक लफ़्ज़ है “ग़लती”, इसको हिंदी के में “गलती/गल्ती/ग़ल्ती” लिखा जाता है. ऐसे में ये देखना ज़रूरी है कि मूल उर्दू में किस तरह लिखा है. तो उर्दू के “ल” और “त” के बीच ज़बर का साउंड है लिहाज़ा इसे पूरे “ल” के साथ लिखा जाना लाज़िम है. ‘ग़लती.’
आप किस तरह के साहित्य पर काम कर रहे हैं?
अभी तक मेरा ज़्यादातर काम नस्र (गद्य) पर रहा है, जिसमें उर्दू तंज़-ओ-मिज़ाह (हास्य-व्यंग्य), कहानियां, ख़ाके (रेखाचित्र) और दास्तानें शामिल हैं. ये सभी उर्दू का क्लासिक लिट्रेचर हैं. मुझे उर्दू के पुराने अदब पर काम करना ज़्यादा पसन्द है. इस पर काफ़ी रीसर्च की जरूरत होती है. ये किताबें बहुत पुरानी होती हैं इनको ढूंढना ही अपने आप में एक काम हैं फिर अगर किसी लाइब्रेरी वगैरह में मिलती भी हैं तो बहुत ख़स्ता हालत है. ऐसे में ये देखना भी जरूरी है कि सबसे ऑथेंटिक नुस्ख़ा (पाण्डुलिपि) कौन-सी है. कई बार इस ढूंढने के कामों में 3-3 साल का समय भी लग जाता है.
मेरे कामों में पतरस बुख़ारी, इब्ने इंशा, रतननाथ सरशार, शौक़त थानवी, फ़िक्र तौंसवी, शाहिद अहमद देहलवी, मिर्ज़ा फ़रहतुल्लाह बेग, इम्तियाज़ अली ताज, चौधरी मोहम्मद अली रुदौलवी और फ़ना बुलन्दशहरी छप चुके हैं. इसके अलावा कई और अहम किताबें जो किसी और ने सम्पादित की हैं उनके लिप्यन्तरण भी किए हैं.
मेरे सभी कामों में इस बात का मैंने ख़ास खयाल रखा है कि हर पेज या कहानी के बाद ऊपर आए उर्दू के सख़्त अलफ़ाज के आसान मानी भी लिखे जाएं.
भविष्य में आपकी क्या योजनाएं हैं?
अभी बहुत-सी अहम किताबें आना बाकी हैं. मैं काम कर रहा हूं. फ़साना-ए-आज़ाद जैसी उर्दू की कालजयी रचना पर काम करते हुए इस बात का एहसास हुआ कि ऐसी सभी किताबें जिनका ताल्लुक़ उर्दू की दस्तानों से है उन्हें देवनागरी में आना चाहिए. तो मेरे हक में दुआ करें कि इन सब कामों के लिए समय निकाल सकूं और जल्द ही ये सब आपके हाथों तक पहुंचे.
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पहले प्रकाशित : 17 जुलाई 2023, 4:38 अपराह्न IST