9 जुलाई हिंदी फिल्म जगत के लिए एक खास तारीख है. साल 1925 का यही दिन था जब कर्नाटक में एक बालक का जन्म हुआ था. बसंथ कुमार शिवशंकर पादुकोण जिसे दुनिया ने गुरुदत्त के नाम से जाना. गुरुदत्त जिनका जीवन हमेशा अजीब सी कशमकश से गुजरा. उनके यहां हमेशा ‘दो’ रहे. उनकी फिल्मों में हमेशा दो अंत रहे. वैसे ही जीवन हमेशा दो में उलझा रहा. वे मूलत: थे कर्नाटक से मगर बड़े बंगाल में हुए. नाम भी दो, किरदार भी दो. एक दुनिया उनके अभिनय पर फिदा तो दूरी उनके निर्देशक, निर्माता, लेखक के रूप पर मुग्ध. जितने संवेदनशील कलाकार, उतने ही जिद्दी इंसान. एक भावुक प्रेमी, एक सख्त पति. बाहर खामोश मिजाज, भीतर बचपन सा कलरव. दिल नाजुक तो दिमाग में अनगिनत उछलपुथल. दो बार जीवन का अंत करने की कोशिशें. तीसरी बार मौत आई तो कुहासा कि आत्महत्या या हत्या की साजिश. ऐसे ही जैसे प्रेम का त्रिकोण जो मौत के अंत तक ले गया. एक व्यक्ति ऐसे कितने ही ‘दो’ में जिया और आज जब हम उस इंसान की उलझनों, मौत पर सोचते हैं तो लगता है काश! काश कि उलझन के दोराहे पर मानसिक उपचार का संबल मिल जाता.
गुरुदत्त का जिक्र करते ही हमारे दिमाग में ‘प्यासा’, ‘साहब, बीबी और गुलाम’, ‘कागज के फूल’ ‘चौदहवीं का चांद’, ‘बाजी’ जैसी फिल्मों का, इन फिल्मों के गीतों, ट्रीटमेंट और पर्दे पर उभरी श्रेष्ठता का ख्याल आ जाता है. जब हम गुरुदत्त कहते हैं तो हमारे जेहन में श्वेत-श्याम रंगों के तालमेल से प्रभाव उत्पन्न कैमरे के पीछे बैठा एक मकबूल निर्देशक की छवि तैर जाती है. जब हम गुरुदत्त कहते हैं तो हमें ख्याल आता है मशहूर गायिका गीता रॉय का वह प्रेमी जिसने प्रेम में बिखरी जिंदगी दी. हमें याद आता है अभिनेत्री वहीद रहमान का दीवाना जिसकी जिंदगी प्रेम में बिखर गई. जो अपने काम का मास्टर था. जिद की हद तक परफेक्शनिस्ट. ऐसा बावरा जिसने सबकुछ पाने की चाहत में सबकुछ लूटा दिया.
साल 2023 में 9 जुलाई उसी गुरुदत्त की 98 वीं जयंती है. बहुत कम लोगों को पता होगा कि किसी ने आशंका जताई थी कि बसंथ कुमार शिवशंकर पादुकोण नाम बालक के जीवन में मुश्किलें लेकर आएगा तो घबरा कर मां ने बेटे का नाम गुरुदत्त रख दिया था. मां ने नाम तो बदला लेकिन किस्मत नहीं बदल पाई. बंगाल में पढ़े और बढ़े हुए गुरुदत्त को हमेशा बंगाली माना गया जबकि उनका परिवार कर्नाटक से था. शायद यहीं से दो का खेल शुरू हुआ. गुरुदत्त पर लिखी गई विभिन्न किताबों में गुरुदत्त के बचपन से लेकर मृत्यु तक कई तथ्य दर्ज हैं.
जैसे ‘प्यासा’ के लिए गुरदत्त की पहली पसंद दिलीप कुमार थे. उनके लिए उन्होंने लंबा इंतजार भी किया. लेकिन दिलीप कुमार एक समय में एक ही फिल्म करते थे. उन्हें ‘नया दौर’ अधिक पसंद आई और वे उसमें व्यस्त हो गए. एक ही परिसर में होने के बाद भी दिलीप कुमार गुरुदत्त से मिलने भी नहीं आ सके. और इस तरह गुरुदत्त ने खुद ही अभिनय करने का फैसला कर दिया. ये कई बार हुआ. ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’, ‘साहब, बीवी और गुलाम’ और ‘आर-पार’ में भी वे जिस अभिनेता को लेना चाहते थे वह उपलब्ध नहीं हुआ. जैसे, ‘मिस्टर एंड मिसेज 55′ में सुनील दत्त नहीं आ सके, ‘साहब बीवी और गुलाम’ के लिए शशि कपूर और विश्वजीत से चर्चा की गई लेकिन बात नहीं बनी. लेकिन अंतत: ये भूमिकाएं गुरुदत्त ने खुद की.
उस जमाने की ख्यात गायिका गीता रॉय से ‘बाजी’ के सेट पर मुलाकात हुई. गीता स्थापित गायिका और गुरुदत्त के कॅरियर की शुरुआत लेकिन दोनों में प्यार हुआ. करीब तीन साल का प्रेम संबंध 26 मई 1954 को विवाह के रूप में तब्दील हुआ. जब यह बात होती है तो स्वत: ही प्रेम त्रिकोण का जिक्र आ जाता है और वहीदा रहमान की बात होती है.
गुरुदत्त की तीन सबसे मशहूर फिल्मों ‘प्यासा’, ‘कागज के फूल’ और ‘साहब, बीवी और ग़ुलाम’ का हिस्सा रहीं वहीदा रहमान को जब पता चला कि उनके कारण गुरुदत्त और गीता दत्त में दूरियां आ रही हैं तो उन्होंने खुद को अलग कर लिया. यहीं से सबकुछ बदल गया. यह गुरुदत्त के खत्म होने की शुरुआत थी. इसके बाद का समय गीता दत्त के लिए नारकीय जीवन का पर्याय रहा. गुरुदत्त का जीवन तो खत्म हुआ ही, गीता दत्त भी इस सदमे से कभी उबर ही नहीं पाई. हालांकि, तथ्य यह भी है कि गुरुदत्त अपने अंतिम समय में बच्चों को लेकर दूर जा चुकी गीता दत्त को याद करते रहे थे.
एक तरफ जीवन का यह स्याह सच है तो दूसरी तरफ पर्दे पर सफलता का कारवां. संघर्ष के दिनों के मित्र देवानंद ने अपने बैनर तले ‘बाजी’ फिल्म का निर्देशन सौंपा. इस फिल्म ने गुरुदत्त को पहचान दे दी. ‘साहब, बीवी और गुलाम’ का तो कहना ही क्या. न सिर्फ बॉक्स ऑफिस बल्कि अवार्ड के मामले में भी यह बेहद सफल रही. मीना कुमारी ट्रेजेडी क्वीन कहलाई तो इसे सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. इस फिल्म के लिए मीना कुमारी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए, अबरार अल्वी को निर्देशन के लिए, गुरुदत्त को बतौर निर्माता सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए और वीके मूर्ति को सिनेमेटोग्राफी के लिए चार-चार फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिले.और ‘प्यासा’ का जिक्र ही अनूठा है. यह भारतीय सिनेमा की प्रतीक फिल्म है. इसकी खूबियों के कारण टाइम मैगजीन की सार्वकालिक सौ सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों की सूची में इसे शामिल किया गया है. आजादी के दस साल बाद बनी इस फिल्म के लिए साहिर लुधियानवी का लिखा गाना ‘जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां है’ आज भी व्यंग्य के रूप में उपयोग किया जाता है.
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया
तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है.
गाने वाला नायक गुरुदत्त जब ‘कागज के फूल’ में एक फिल्म निर्देशक का किरदार निभाता है तो दुनिया के नकलीपन पर यही भाव उभर कर आता है.
उड़ जा उड़ जा प्यासे भंवरे
रस न मिलेगा खारों में
कागज के फूल जहां खिलते हैं
बैठ न उन गुलजारों में
एक हाथ से देती है दुनिया, सौ हाथों से लेती है;
ये खेल है कब से जारी
बिछड़े सभी, बिछड़े सभी बारी-बारी.
उफ्फ! ‘बाजी’, ‘जाल’, ‘बाज’ और ‘सीआईडी’ जैसी मनोरंजक फिल्मों से शुरू हुआ सफर ‘कागज के फूल’ जैसी फिल्मों पर आकर खत्म हुआ जिसका गाना कहता है:
जाएंगे कहां सूझता नहीं
चल पड़े मगर रास्ता नहीं
क्या तलाश है कुछ पता नहीं
बुन रहे हैं दिल ख़्वाब दम-ब-दम
वक़्त ने किया क्या हंसीं सितम
तुम रहे न तुम हम रहे न हम
वक्त ने किया क्या हसीं सितम.
फिर आई वो 10 अक्टूबर 1964 की वह रात जब गुरुदत्त नींद की गोलियों संग ऐसे सोए कि फिर उठे ही नहीं. कुछ लोग मानते हैं कि वहीदा रहमान को गुरुदत्त से शादी कर लेनी थी लेकिन वहीदा रहमान ने गीता दत्त का ख्याल एक गरिमापूर्ण रिश्ता निभाया और खुल कर कभी इस बारे में बात नहीं की. दूसरी, ओर यह भी माना जाता है कि जिस तरह का सर्जनात्मक गुरूर का टकराव गुरुदत्त और गीता दत्त के बीच हुआ क्या गारंटी है कि वैसा गुरुदत्त और वहीदा रहमान के बीच नहीं होता? जिस तरह की ‘कैद’ गुरुदत्त ने गीता दत्त को दी थी वैसी वहीदा को भी मिलती तो भविष्य कुछ ओर ही होता. खैर, जिंदगी वैसी नहीं होती जैसी फिल्मी पर्दे पर दिखाई देती है.
गुरुदत्त के न होने के बाद उनकी छोटी बहन फिल्म निर्माता ललिता लाजमी ने एक अफसोस का जिक्र किया है. यासिर उस्मान की किताब ‘गुरुदत्त एक अधूरी दास्तान’ इस अफसोस के बारे में बताती है. छोटी बहन ललिता लाजमी कहती हैं कि हमने एक मनोचिकित्सक को बुलाया था. उसने एक मुलाकात के लिए 500 रूपए फीस ली थी. मेरा भाई आत्मा हंसा था कि वह गुरु के साथ ‘सिर्फ बात कर रहा था’ और इस काम के इतने पैसे लिए. हमने उस डॉक्टर को दोबारा कभी नहीं बुलाया. बहन ने अफसोस जताते हुए कहा है कि वह अपने भाई के मानसिक इलाज के लिए पर्याप्त प्रयास न करने के लिए खुद को दोषी मानती है. गुरुदत्त मानसिक रूप से परेशान थे. वे बार-बार मरने की बातें किया करते थे. यहां तक कि जान देने की कोशिश भी कर चुके थे. उन्हें एक मानसिक चिकित्सक की जरूरत थी लेकिन मिला शराब का साथ. और इस तरह हिंदी फिल्मों का एक बेहतरीन निर्माता, निर्देशक, अभिनेता इस दुनिया से रूखसत हो गया, यह कहते हुए:
ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया
ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया
ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है.
इसी दुनिया में आज भी गुरुदत्त जैसे कई लोग हैं जो कशमकश के दोराहे पर खड़े हैं जिन्हें सहानुभूति, दया, नफरत, अलगाव या तोहमत की नहीं बस मानसिक इलाज की जरूरत है. उनके जीवन में भी गुरुदत्त की फिल्मों की तरह दो अंत हैं. वे एक बुरे अंत की तरफ बढ़े चले जा रहे हैं जबकि उन्हें दूसरे अंत यानी सहज मानसिक उपचार की तरफ ले जाया जाना चाहिए.
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पहले प्रकाशित : 09 जुलाई, 2023, 19:44 IST