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Dear Father Review: फिल्म में एडिटिंग का महत्त्व देखना हो तो देखिए ‘डियर फादर’

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अमेज़ॉन प्राइम वीडियो पर हाल ही में एक फिल्म रिलीज हुई है- डियर फादर. इस फिल्म को लेकर दर्शकों में वैसे ही काफी कन्फ्यूजन फैला हुआ है कि इसके रचयिता कौन हैं. फिल्म के ओपनिंग क्रेडिट में दिखाया गया है कि पटकथा आदित्य रावल ने लिखी है. मूल कहानी और परिदृश्य के लिए डॉक्टर विवेक बेले का नाम दिया गया है और साथ ही ये भी लिखा है कि ये फिल्म गुजरात के प्रसिद्ध नाटक लेखक उत्तम गड़ा के बहुचर्चित नाटक ‘डियर फादर’ का अडाप्टेशन है. शोध करने पर भी सही जानकारी नहीं मिलती क्योंकि इस नाटक का मंचन पिछले कई सालों से किया जा रहा है लेकिन 2018 में इसी कहानी पर मराठी में नाना पाटेकर अभिनीत एक फिल्म बनी थी- ‘आपला माणूस’, जिसके लेखक-पटकथा लेखक विवेक बेले थे और ये फिल्म विवेक बेले के ही एक चर्चित नाटक ‘काटकोण त्रिकोण’ पर बनायीं गयी थी. खैर इस विवाद से हटकर फिल्म ‘डियर फादर’ से एक बात हर दर्शक के दिमाग में साफ हो जायेगी, कुछ फिल्मों को एक बेहतरीन एडिटर की जरुरत होती है, खासकर किसी नाटक पर आधारित फिल्म को. एक अच्छी कहानी पर बनी डियर फादर कुछ ज़्यादा ही लम्बी है और दृश्यों को भी सही सलीके से न जमा कर मिस्ट्री की पूरी भावना को खत्म कर दिया गया है.

डियर फादर में परेश रावल एक रिटायर्ड शख्स हैं जो अपने वकील बेटे के साथ एक फ्लैट में रहते हैं. जहां उनका बेटा (चेतन धनानि) थोड़ा दब्बू है, पिता के सामने ज़्यादा बोल नहीं पाता वहीं, उसकी पत्नी (मानसी पारेख) एक स्कूल में टीचर है जो कि थोड़ी तेज तर्रार है और उसे अपनी ज़िन्दगी में कोई दखल अंदाज़ी पसंद नहीं है, खासकर उसके ससुर की. उसे लगता है कि उसके ससुर पुराने खयालात के हैं, हर बात को संस्कारों से जोड़ देते हैं, हर खर्च को फ़िज़ूल खर्च बता देते हैं और इतने रूढ़िवादी हैं कि अपने पड़ोसियों के सामने मनगढंत किस्से बना कर अपनी धाक कायम करना चाहते हैं. जैसा कि होता है परेश रावल और मानसी आपस में कई बार झगड़ते रहते हैं और चेतन दोनों के बीच मध्यस्थता कर के शांति स्थापित करने की कोशिश करता रहता है. ऐसी ही एक रात को परेश रावल अपनी बालकनी से नीच गिर जाते हैं और हॉस्पिटल ले जाए जाते हैं. मामले की तहकीकात करने के लिए एक इंस्पेक्टर (परेश रावल, दूसरी भूमिका में) आते हैं जो अलग अलग तरीके से पहले इस केस को एक सुसाइड और फिर मर्डर साबित करते हुए नजर आते हैं. चेतन और मानसी दोनों को ही अभियुक्त बनाने के लिए वो तरह तरह की थ्योरी और साक्ष्य प्रस्तुत करते जाते हैं. सब कुछ होने के बाद जब ऐसा लगने लगता है कि अब दोनों में से एक को तो जेल होगी है, बूढ़े परेश रावल द्वारा अस्पताल में दिए गए बयान से चेतन और मानसी दोनों बच जाते हैं और इंस्पेक्टर परेश रावल को सस्पेंड कर दिया जाता है.

परेश रावल, उत्तम गड़ा द्वारा लिखी नाटक ‘डियर फादर’ का मंचन पिछले कई सालों से करते आये हैं. उनके कई सुपरहिट नाटकों में से’डियर फादर’ सबसे बेहतरीन नाटकों में गिना जाता है. 1982 में नसीब नी बलिहारी नाम की गुजराती फिल्म से अपना करियर शुरू करने वाले परेश रावल के करियर की ये दूसरी गुजराती फिल्म है. यानि 40 साल बाद वे कोई गुजराती फिल्म कर रहे हैं. 2018 में नाना पाटेकर अभिनीत आपला माणूस की भी यही कहानी है और नाना पाटेकर ने साथ साथ निर्देशक सतीश रजवाड़े ने विवेक बेले की ही कथा और पटकथा को एक मिस्ट्री थ्रिलर का रंग दिया था. विवेक ने पहले काटकोण त्रिकोण नाम का नाटक लिखा था जिमसें ख्यातनाम नाट्य अभिनेता डॉक्टर मोहन अगाशे ने मुख्य भूमिका निभाई थी. ‘डियर फादर’ फिल्म दरअसल पिता- पुत्र- पुत्रवधू – स्वसुर के आपसी संबंधों की सच्ची दास्तान है. वर्तमान समय में घर के बड़े बुज़ुर्ग, नयी पीढ़ी के लोगों को जब भी कोई सीख या नसीहत देते हैं तो उन्हें वो पसंद नहीं आती. हमारे जमाने में ऐसा होता था वाली बात आजकल सुनने में हास्यास्पद लग सकती है, पुरानी लग सकती है, संकुचित विचारधारा लग सकती है जबकि वस्तुस्थिति ये है कि शक्तिशाली पूंजीवाद ने मानवीय संवेदनाओं का मज़ाक बना कर रख दिया है. आज हम एक फ़ोन लेने में लाख रुपये लगा देते हैं ताकि घर के लोग संपर्क में रहे लेकिन ये भूल जाते हैं कि घर के बुज़ुर्ग फ़ोन पर बात करने से नहीं खुश रहते बल्कि उनके साथ कुछ समय बिताने से खुश होते हैं. ईएमआय पर बड़ा घर लेना ज़रूरी नहीं होता, बल्कि किसी भी घर में सबका साथ समय बिताना उसे घर बनाता है. ॠणम कृत्वा घृतम पिबेत नहीं चादर के हिसाब से पैर फैलाना ज़रूरी होता है. विश्वव्यापी बीमारी ने हमें जमापूंजी का अर्थ समझाया है और क्रेडिट कार्ड की अनुपयोगिता का भी. स्वस्थ रहने का मतलब अब समझ पाए हैं लेकिन सेहत का नुकसान कर आगे बढ़ने की होड़ की वजह अभी तक समझ नहीं आयी है.

परेश रावल टॉप फॉर्म में हैं. बतौर बुज़ुर्ग भी और बतौर पुलिस अफसर भी. एक दृश्य कमाल का है. जब पुलिस इंस्पेक्टर परेश रावल, स्कूल में मानसी पारेख से मिलने जाते हैं तो अपने आप को एक नारीवादी संस्था का प्रतिनिधि बताते हैं. मानसी उनसे पूछती है कि ऐसा क्यों तो परेश जवाब देते हैं कि पुलिस आपसे मिलने आयी है ऐसा कहते तो लोग मानसी को गलत समझते. कुछ देर बार मानसी परेश को कहती है कि उनकी (इंस्पेक्टर परेश की) शक्ल उनके ससुर से बहुत मिलती है तो परेश जवाब देते हैं कि जिनके दुःख एक जैसे होते हैं उनकी शक्लें अक्सर मिलती है. फिल्म के अंत में समझ आता है कि परेश और उनके बेटे के बीच भी सम्बन्ध ठीक नहीं हैं. मानसी पारेख का अभिनय भी अच्छा है. आज के ज़माने के लड़की, जो अपने करियर पर भी उतना ही ध्यान रखती है जितना उसके पति, घर के कामों में फंस के न रह जाने वाली और अपने विचारों के लिए किसी से भी भिड़ जाने वाली मानसी का किरदार भी बहुत सोच समझ का लिखा है. मानसी के पति और परेश के पुत्र के किरदार में चेतन भी पिता और पत्नी के बीच का तालमेल बिताते बिताते अपने आप को भूल जाते हैं. पुलिस अफसर परेश रावल से भिड़ते हुए उनका गुस्सा एकदम जायज़ और असली लगता है.

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फिल्म ‘डियर फादर’ की विडम्बना इसका भरपूर लम्बा होना है. दरअसल, मराठी फिल्म आपला माणूस भी इतनी ही लम्बी थी फिर भी बहुत कम समय के लिए बोरिंग लगती है वहीं ‘डियर फादर’ बहुत लम्बी लगती है. इसकी वजह है एडिटिंग. मिस्ट्री फिल्मों में फ़्लैश बैक और फ़्लैश फॉरवर्ड का इस्तेमाल संतुलन में हो तो मिस्ट्री बनी रहती है. ‘डियर फादर’ में फ्लैशबैक थोड़ा ज़्यादा इस्तेमाल किया गया लगता है. फिल्म के दृश्यों को छोटा करना चाहिए था. कुछ डायलॉग्स की बलि देनी चाहिए थी. नाटक से फिल्म में रूपांतरण करते समय ये याद रखना जरूरी है कि नाटक एक सेट पर होता है, लाइव होता है और फिल्मों में अलग अलग सेट, अलग अलग रंग विन्यास, वेशभूषा का इस्तेमाल किया जा सकता है. नाटक की भाषा और फिल्म की भाषा में अंतर होता है. ‘डियर फादर’ के निर्देशक उमंग व्यास को इस बात का ध्यान रखना चाहिए थे. इसके पहले भी वो एक मराठी फिल्म ‘वेंटीलेटर’ को गुजराती में बना चुके हैं. ‘डियर फादर’ को सिर्फ सही एडिटिंग की मदद से बेहतरीन फिल्म बनाया जा सकता है. इसे देखते हुए ये एहसास होता है कि सही एडिटिंग कितनी जरूरी है.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

टैग: अमेज़न प्राइम वीडियो, छवि समीक्षा, परेश रावल

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