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Naradan Review: क्या सफल न्यूज TV चैनल चलाने के लिए भ्रष्टाचार करना जरूरी है?

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पिछले कुछ सालों में न्यूज चैनल के काम काज के तरीकों पर आम दर्शकों की कड़वी और तीखी प्रतिक्रिया देखने, पढ़ने को मिलती है. ऐसा लगता है कि सभी न्यूज़ चैनल किसी न किसी एजेंडा के तहत काम करते हैं और सच बताने के सिवाय सभी कामों में लिप्त हैं. हिडन कैमरा से ली गयी वीडियो, स्टिंग ऑपरेशन, खोजी पत्रकारिता, आधी अधूरी जानकारी के साथ जर्नलिस्ट्स द्वारा खबर निष्पक्ष सुनाने के बजाये किसी एक चश्मे से देखी जाने लगी हैं. सत्ता की चाकरी, व्यावसायिक मजबूरियां, बिना फील्ड में गए रिपोर्टिंग और पान की दुकान की तरह खुले मीडिया स्कूल्ज से निकले अधपके और अधकचरा जर्नलिस्ट की वजह से पूरा पेशा बदनाम हो रखा है. पहले टीवी का काम होता था खबर की तह तक जाना और सच दिखाना अब टीवी न्यूज खबर की तह तक नहीं जाता बल्कि लोगों की राय के नाम पर अपनी राय उसमें घुसाता रहता है. खबर सच है या नहीं ये अब प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं, न्यूज चैनल कोई तहकीकात करने की ज़िम्मेदारी नहीं लेता. न्यूज चैनल की गन्दी राजनीति को सामने लाने का प्रयास है मलयालम फिल्म ‘नारदन’. इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं देखेंगे जो आपको पहले से पता न हो फिर भी सिर्फ टीआरपी की लड़ाई में न्यूज़ चैनल किस हद तक गिर सकते हैं इसकी एक बानगी इस फिल्म में दिखाई गयी है. थोड़ा ध्यान से देखें तो आपको आपके परिचित न्यूज एंकर्स और पत्रकार इसके किरदारों में नजर आ जायेंगे. फिल्म रोचक है, लम्बी है, लेकिन देखने का कष्ट उठा सकते हैं.

चंद्रप्रकाश (टोविनो थॉमस) एक टीवी न्यूज़ एंकर और टॉक शो होस्ट है जिसका चैनल न्यूज़ मलयालम टीआरपी के रेस में काफी पीछे है. एक यूट्यूब न्यूज चैनल का पत्रकार एक खोजी स्टोरी दिखा कर न्यूज़ मलयालम में नौकरी पा लेता है. चंद्रप्रकाश को उसका एडिटर काफी बेइज़्जत करता है ताकि वो कोई अच्छी स्टोरी ला सके लेकिन न्यूज चैनल में नौकरी करने से परेशान चंद्रप्रकाश एक भ्रष्ट राजनेता के साथ मिल कर एक नया टीवी चैनल “नारद टीवी” शुरू कर देता है. इस टीवी चैनल में टीआरपी के लिए सभी हथकंडे अपनाये जाते हैं. खबरें बनायीं जाती हैं, प्लांट की जाती हैं, पैनल डिस्कशन में पैनेलिस्ट को नैतिकता और रस्मोरिवाज के हवाले दिए जाते हैं और पूरे शो में सिर्फ चंद्रप्रकाश ही बोलता रहता है दूसरे किसी को या विरोधी स्वर को दबा दिया जाता है या उनकी बेइज़्ज़ती की जाती है. नारद टीवी सफलता की ऊंचाइयां चढ़ते जाता है, चंद्रप्रकाश अपने आप को देश का सब बड़ा पत्रकार और राजनीति का किंगमेकर समझने लगता है और फिर खुद ही की महत्वाकांक्षा के जाल में फंस कर अपना करियर एक ऐसे दोराहे पर ला खड़ा करता है जहां से सिर्फ उसकी हार ही संभव है.

नारदन की कहानी बहुत लम्बी खींच दी गई है. मलयालम भाषा के सफल साहित्यकार और फिल्म लेखक उन्नी आर उर्फ़ पी जयचंद्रन ने कई बेहतरीन किताबें और फिल्में लिखी हैं. नारदन उन्ही की कलम से उपजी है. वैसे अब तक हिंदी दर्शकों को एक ऐसे न्यूज एंकर की आदत हो चुकी है जिसने शुरुआत तो साफ़ सुथरी और अच्छी पत्रकारिता से की थी लेकिन उसने एक राजनेता के साथ मिल कर एक न्यूज चैनल की शुरुआत की. ये न्यूज एंकर तार सप्तक में बड़े ही नाटकीय तरीके से न्यूज पढ़ता और पैनल डिस्कशन करता है. इसके पैनल पर इसका विरोध करनेवाले वक्ताओं की खुल के आलोचना करता है, बेइज़्ज़ती करता है और उन्हें बड़े ही घटिया तरीके से चुप भी कराता रहता है. चंद्रप्रकाश उसी की तर्ज़ पर रचा गया किरदार है. फिल्म में कोई घटना अप्रत्याशित नहीं है लेकिन हर घटना कुछ अंदाज से प्रस्तुत की जाती है कि लगता है कि टीवी न्यूज का स्तर कितना गिर गया है. चंद्रप्रकाश के प्रति दर्शकों की भावना सहानुभूति और सम्मान से गिर कर घृणा और अपमान का रूप ले लेती है लेकिन असल बात ये है कि आज कल की टीवी न्यूज की दुनिया में ऐसे ही नाटकीय एंकर्स और प्रोग्राम्स को सफलता मिलती है.

हाल ही में नेटफ्लिक्स पर टीवी न्यूज़ पर एक फिल्म आयी थी धमाका जिस में कार्तिक आर्यन मुख्य भूमिका में थे. अगर कार्तिक आर्यन, नारदन में टोविनो थॉमस को देख लें तो शायद अभिनय का क, ख, ग सीखने फिर से लौट जाएं. एक दब्बू, डरा सहमा, पत्रकारिता में आदर्शवादिता ढूंढता, एक असफल से प्रेम से जूझता, प्रेस क्लब में जा कर सस्ती शराब पीता चंद्रप्रकाश कैसे नारदन टीवी का प्रमुख, सीपी बन जाता है ये देखने लायक है. कुछ 7-8 मिनिट लम्बा इनका ट्रांसफॉर्मेशन का सीन इस फिल्म का सबसे अच्छा सीक्वेंस है. एक लाइफ कोच रामजी के साथ टोविनो अपनी ज़िन्दगी में आमूलचूल परिवर्तन लाते हैं और ज़िन्दगी से सारी नैतिकता को एडिट कर के फेंक देते हैं. फिल्म पूरी टोविनो पर केंद्रित है. ये बात फिर से साफ़ हो जाती है कि टोविनो सुपरस्टार हैं, और नेगेटिव रोल करने में उन्हें कोई परेशानी भी नहीं है. मिन्नल मुरली में वो एक सुपर हीरो बने थे और नारदन में वो एक न्यूज एंकर. एक फ्लॉप चैनल के एंकर से लेकर एक सफल न्यूज़ चैनल के एडिटर तक का उनका ट्रांसफॉर्मेशन दर्शकों को हिला डालता है. टोविनो के अभिनय की तारीफ अब हिंदी फिल्म के निर्माता निर्देशक भी करने लगे हैं. ताकत, सत्ता, पैसे और सफलता की भूख में वो कैसे दीवाने हो कर दुनिया को अपनी उंगलियों पर नाचना चाहते हैं, ये कमाल है. वकील शकीरा मोहम्मद की भूमिका में हैं एना बेन. कुम्बलंगी नाइट्स से अपने करियर की शुरुआत करने वाले एना ने काफी अच्छा काम किया है. फिल्म में मीडिया की ताकत पर प्रश्न उठाये गए हैं. जज की भूमिका में हैं इन्द्रान्स जो कि एक निहायत ही शरीफ, दब्बू और सिस्टम के हिसाब से चलने वाले जज की तरह नजर आते हैं लेकिन जब वो तर्कों के आधार पर सीपी की बखिया उधेड़ डांट लगाते हैं तो उनके किरदार का रौद्र रूप दर्शकों के अंदर की इच्छा का प्रतिरूप नज़र आता है.

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निर्देशक आशिक अबू की प्रशंसा करने का दिल करेगा, क्योंकि इस पूरी बेहद लम्बी फिल्म में एक भी दृश्य मूल कहानी से भटकाने वाला नहीं है, खास कर जब चंद्रप्रकाश पूरी तरह से सीपी बन चुका है उसके बाद. एक यूट्यूब चैनल का रिपोर्टर तनख्वाह नहीं पाता है और उसका एडिटर उसे मान मनुहार से नयी स्टोरी करने के लिए भेज देता है. दूसरी और चंद्रप्रकाश सिर्फ अपने पैनेलिस्ट को बोलने देता है और उनकी गलतियां पकड़ कर टॉक शो में रजान डालता रहता है. वहीँ सीपी के तौर पर वो किसी भी पैनेलिस्ट की बात पूरी सुनता ही नहीं है और अपने एजेंडा के हिसाब से पूरी डिबेट या टॉक शो का डायरेक्शन ही बदल देता है. वर्तमान पत्रकारिता की इन तस्वीरों को आशिक़ ने बखूबी दिखाया है. इन सबके बावजूद फिल्म धीमी है. लम्बी है. कुछ सीन खिंच गए हैं. प्रेस क्लब की बार के सीन हटाए जा सकते थे. चंद्रप्रकाश की गर्लफ्रेंड की उपयोगिता फिल्म में तो नजर नहीं आयी. फिल्म में व्यक्ति की जाति पर भी टिप्पणी की गयी है. जज को देख कर सीपी का वकील कहता है कि इस जज के सामने मैं माफ़ी की अपील नहीं करूंगा क्योंकि मैं ऊंची जाति का हूं. एक सीन में सीपी, अपनी एक रिपोर्टर को कहता है की जाति तो एक सच्चाई है इसे नाम में शामिल करो, इस से बचो मत. फिल्म के अन्य कलाकार अपने अपने किरदार के हिसाब से ठीक ही हैं.

नारदन का संगीत अच्छा है, एक दो रैप सॉन्ग्स भी हैं. जो फिल्म 2 घंटे से कम समय की हो सकती थी वो फिल्म के एडिटर सैजू श्रीधरन की वजह से करीब 2.30 घंटे की फिल्म बन गयी. फिल्म का पहला हिस्सा काफी धीमा है और दूसरे हिस्से में कोर्ट सीन्स की वजह से थोड़ी रफ़्तार बनी है फिर भी फिल्म में से अनावश्यक हिस्से काटे जा सकते थे. कहानी और पटकथा में यही अंतर रहना चाहिए. वैसे टीआरपी की लड़ाई या पत्रकारिता के गिरे स्तर पर कई फिल्में बनी हैं, लेकिन नारदन एक दम एक लाइन में चलती है सीधे-सीधे और इसमें व्यवस्था पर कोई व्यंग्य कर के कथा हल्का करने की कोशिश नहीं की गयी है. फिल्म देखनी चाहिए क्योंकि हम टीवी न्यूज की असलियत से वाकिफ तो हैं लकिन फिर रोज उसे देखते हैं तो एक बार सच को किसी और के नजरिये से भी देख लेना चाहिए. अंग्रेजी में इस टीआरपी पर कई फिल्में बनी हैं, उनकी तुलना में नारदन उतनी प्रभावी तो नहीं है लेकिन एक देशी फिल्म है तो सब जाना पहचाना लगता है.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

टैग: अमेज़न प्राइम वीडियो, फ़िल्म रिलीज

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