आयुष्मान खुराना की फिल्म विक्की डोनर से शुरू हुई नए किस्म की कहानियों की एक श्रृंखला में नई फिल्म आयी ‘बधाई दो’ जो नेटफ्लिक्स पर हाल ही में रिलीज की गई. बॉक्स ऑफिस पर 11 फरवरी को रिलीज की गयी थी और काफी चर्चा के साथ ठीक ठाक कमाई कर ली थी. तीन हफ्ते के भीतर ओटीटी पर इसका आना ओटीटी प्लेटफॉर्म की बढ़ती अहमियत को दिखता है. ‘बधाई दो’ एक अनूठी कहानी लग सकती है, क्योंकि हिंदी फिल्मों में इस तरह की कहानियां कम ही देखने को मिलती हैं जबकि कहानी का मूल कॉन्सेप्ट बहुत पुराना है और इसकी शुरुआत बीसवीं शताब्दी में हो चुकी थी. फिल्म में कॉमेडी अच्छी है, थीम वयस्क है तो बच्चों के साथ नहीं देख सकते लेकिन ये एक अच्छा संकेत है कि संवेदनशील विषयों पर साफ सुथरी फिल्में बनाई जा सकती है. फिल्म देखने लायक है हालाँकि कुछ बातें हैं जो फिल्म को थोड़ा बोझिल बना देती हैं.
दो वयस्कों की समलैंगिकता को यूँ तो बीमारी की तरह देखा जाता रहा है लेकिन कई देशों में समलैंगिकता अपराध भी है, खुद भारत में इसे कुछ समय पहले ही कानूनी मान्यता प्राप्त हुई है. इस सबसे भी ज़्यादा दुखदायी बात ये रही है कि समलैंगिकों को सामाजिक मान्यता अभी तक प्राप्त नहीं हुई है. किसी गे या लेस्बियन शख्स को हिकारत की निगाह से देखा जाता है. कई शहरों में इन्हें किराये पर मकान नहीं मिलते, नौकरी में भी भेदभाव होता है और सब ठीक भी रहे तो पीठ पीछे की खुसुर पुसुर किसी भी अच्छे भले शख्स का दिमाग खराब कर सकती है. बीसवीं सदी में समलैंगिक पुरुष किसी ऐसी स्त्री से विवाह करते थे जिसके साथ वो शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाते थे. इस बात से दोनों को कोई दिक्कत नहीं थी क्योंकि ये विवाह सुविधा के लिए किया जाता था. कारण वही था, सामाजिक बेड़ियाँ. इसे लैवेंडर मैरिज कहा जाता है. सुविधा के लिए किया गया विवाह। हॉलीवुड में कई बड़े सितारे गे या लेस्बियन होते थे लेकिन 1920 के दशक में कलाकारों के साथ किये जाने वाले कॉन्ट्रैक्ट्स में उन्हें गे या लेस्बियन होने की अनुमति नहीं होती थी. इस के चलते ये सितारे लैवेंडर मैरिज कर लेते थे. इस से सबको लगता था कि ये समलैंगिक नहीं हैं और कॉन्ट्रैक्ट की शर्त भी पूरी हो जाती थी. बधाई दो में इसी लैवेंडर मैरिज को आधार बना कर एक भारतीय मध्यमवर्ग की कहानी रची है. मूल आयडिया आयुष अग्रवाल का है और पटकथा लिखी है निर्देशक हर्षवर्धन कुलकर्णी के साथ सुमन अधिकारी और अक्षत घिल्ड़ियाल (बधाई हो) ने.
राजकुमार राव और भूमि पेडनेकर मुख्य भूमिका में हैं. राजकुमार राव ने पुलिसवाला बनाने के लिए बॉडी बिल्डिंग की है और उनका अभिनय तो स्वाभाविक किस्म का है ही हालाँकि हड़बड़ाए से शख्स की भूमिका वाले उनके सीन में पुराने राजकुमार की झलक अभी तक बरकरार है. कमर्शियल सिनेमा के हिसाब से राजकुमार काफी चीज़ें सीख रहे हैं. अच्छे अभिनय के साथ, बढ़िया डांस, बॉडी बिल्डिंग, थोड़ा बहुत एक्शन भी अब उनके खाते में आ गया है लेकिन कई जगह उनका पैरेलल सिनेमा वाला अंश ज़ोर मारने लगता है. कॉमेडी में वो काफी सहज हैं. बरेली की बर्फी में उनकी कॉमेडी का फ्लेवर अलग था और बधाई दो में वो सिचुएशन की कॉमेडी करते हैं. जब नसीरुद्दीन शाह ने त्रिदेव फिल्म के साथ कमर्शियल सिनेमा में कदम रखा था तो उनकी असहजता की झलक आप राजकुमार में देख सकते हैं. भूमि पेडनेकर के लिए बहुत जरूरी है कि वो अपने आप को री-इनवेंट करें. वो हर रोल में लड़ने को तैयार लड़की ही बनती हैं. संभव है वो निजी जीवन में भी ऐसी ही हों लेकिन बधाई दो में उनके पास अपनी अभिनय क्षमता दिखाने का स्कोप था. उनका रोल कठिन था लेकिन उनका रोल राजकुमार राव की तरह अलग अलग छटाएं लिए हुए नहीं था. साथी कलाकारों में राजकुमार की माँ की भूमिका में शीबा चड्ढ़ा ने हमेशा की तरह छोटी और बढ़िया भूमिका निभाई है. गुलशन देवैया का रोल गेस्ट अपीयरेंस की तरह था. पासीघाट (अरुणाचल प्रदेश) के कैफ़े चू की मालकिन और कई सौंदर्य प्रतियोगिताओं की विजेता चुम दरांग ने प्रभावित तो किया लेकिन उन्हें हिंदी फिल्मों में ज़्यादा रोल मिलेंगे इसमें संदेह है. सीमा पाहवा और नितेश पांडेय का रोल अच्छा था.
बधाई दो का एक अच्छा पक्ष है संगीत. बंदी टॉट और अटक गया काफी लोकप्रिय हुए हैं. सबसे अच्छा गाना मांगे मंजूरियां हैं जो लम्बे समय तक एक अच्छे लव सॉन्ग की तरह पॉप्युलर रहेगा. बधाई दो के सिनेमेटोग्राफर हैं स्वप्निल सोनवणे (न्यूटन, बाजार, सेक्रेड गेम्स इत्यादि) फिल्मों के सफल सिनेमेटोग्राफर हैं लेकिन बधाई दो में उनके कैमरे ने कोई जादू नहीं किया जिसकी उनसे उम्मीद थी. उन्होंने 2017 में आयुषी मर्डर केस पर आधारित डाक्यूमेंट्री “द तलवार्स – बिहाइंड क्लोज्ड डोर्स और फिर सेक्रेड गेम्स में अपने कैमरे से कई लाजवाब सीन शूट किये थे. एक सरल कहानी होने की वजह से उन्होंने संभवतः इस फिल्म में भी कैमरा वर्क सरल ही रखा है. एडिटिंग कीर्ति नाखवा की है जो निर्देशक हर्षवर्धन कुलकर्णी के हर प्रोजेक्ट की एडिटर रही हैं.
बधाई दो में जो बात कहानी को कमज़ोर करती है वो है विषय का ‘अति-सरलीकरण”. विषय संवेदनशील है. एक गे शख्स को एक लेस्बियन लड़की को शादी के लिए मनाना दरअसल इतना आसान नहीं होता जितना की दिखाया गया है. जब राजकुमार अपने परिवार को बताते हैं कि वो गे हैं तो उनके अंदर की छटपटाहट अच्छी लगती है लेकिन उनकी माँ (शीबा चड्ढ़ा) जितनी आसानी से अपने बेटे को गले लगा लेती हैं वो बहुत असहज लगता है. राजकुमार राव का ब्रेकअप और फिर गुलशन के साथ उनकी बढ़ती नज़दीकियां में बिना बात के कॉमेडी बनाने की कोशिश की गयी है. यदि आप अपने आसपास किसी गे या लेस्बियन शख्स को जानते हैं या उसके मित्र हैं तो आपको उनके हाव भाव के साथ अलग अलग विषयों पर उनकी राय से अंदाजा लग जाता है कि उनके सोचने का तरीका क्या है लेकिन बधाई दो के दोनों मुख्य किरदार सिर्फ चेहरा देख कर पिघल जाते हैं. गे या लेस्बियन कपल्स में शारीरिक नज़दीकियों के प्रति अलग भावनाएं होती हैं और वो इसे सेक्स की तरह नहीं प्रेम की तरह देखते हैं. बधाई दो में इन बातों को भी कॉमेडी का जामा पहना दिया गया है. चूंकि फिल्म कॉमेडी ड्रामा के तौर पर सोची और लिखी गयी थी इसलिए कई बातों को नजरअंदाज किया जा सकता है लेकिन तथ्यात्मक रूप से इसमें थोड़ी और गहराई जोड़ी जाती तो फिल्म के साथ एक इमोशनल कनेक्ट हो जाता. मनोरंजन के तौर पर देखने के साथ इसमें से कुछ सीखने भी मिल जाता.
फिल्म अच्छी है, देखी जानी चाहिए ताकि थोड़े विद्रोही कहानीकारों को भी स्क्रीन तक पहुंचने का अवसर मिले.
डिटेल्ड रेटिंग
कहानी | : | |
स्क्रिनप्ल | : | |
डायरेक्शन | : | |
संगीत | : |
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पहले प्रकाशित : 16 मार्च, 2022, 2:12 अपराह्न IST