भारत ने जिन परिस्थितियों में स्वतंत्रता अर्जित की वह सामाजिक , भौगोलिक और राजनैतिक दृष्टि से विश्व इतिहास में एक चमत्कारिक प्रयोग था. अंग्रेजी हुकूमत को लक्ष्य कर स्वतंत्रता की पुकार जितनी ही स्पष्ट थी पूरे देश की रियासतों को एक नए ढांचे में बांधना और देश की जनता को उनकी आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए एक सूत्र में पिरोना उतनी ही जटिल चुनौती थी.
इस काम को पटेल , नेहरु, अम्बेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे समर्पित नेताओं ने अंजाम दिया. कहना न होगा कि इस प्रयास को ठोस वैधानिक आकार देने के में डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में डॉक्टर अम्बेडकर के संयोजन और गहन प्रयास से जो ‘ भारतीय संविधान ‘ निर्मित हुआ उसकी दूरगामी और निर्णायक भूमिका बनी.
इस दस्तावेज को एक संप्रभु देश ने शासन-प्रशासन के मुख्य आधार के रूप में सहर्ष अपनाया. संसदीय शासन प्रणाली के अंतर्गत बने और स्वीकृत प्रावधानों के अनुरूप यह संविधान स्वाधीनता और स्वायत्तता के मूल्यों को स्पष्टत: केन्द्रीय महत्व देता है. परंतु इस तरह के मूल्य व्यवहार की दृष्टि से कभी भी निरपेक्ष नहीं कहे जा सकते. इन्हें निरपेक्ष मानने की स्थिति में तो केवल निरंकुश अराजकता ही पैदा होगी.
एक नागरिक के रूप आधिकारिक रूप से प्रत्येक भारतीय बहुत सारी सुविधाओं, स्वतंत्रताओं और जन – जीवन में भागीदारी के अवसर स्वाभाविक रूप से प्राप्त करता है.
समानता और बन्धुत्व जैसे उददेश्यों को समर्पित और पारस्परिक सौहार्द और सर्व – धर्म – समभाव की भावना के साथ प्रतिश्रुत यह संविधान देश के सभी नागरिकों को बिना किसी तरह के भेद-भाव के एक जैसे बर्ताव का अधिकारी बनाता है. परन्तु सिर्फ अधिकारों की ही बात करना निरर्थक है क्योंकि जीवन चलाने में कर्तव्य की भी अहम भूमिका होती है. कर्तव्य के बिना अधिकार न केवल अधूरे रहते हैं बल्कि उनकी मांग करने वाले की कोई पात्रता ही नहीं बनती है.
वस्तुत: हम कर्तव्यों के सहारे ही अपने लिए अधिकारों को पाने की पात्रता अर्जित करते हैं. एक नागरिक के रूप आधिकारिक रूप से प्रत्येक भारतीय बहुत सारी सुविधाओं, स्वतंत्रताओं और जन – जीवन में भागीदारी के अवसर स्वाभाविक रूप से प्राप्त करता है. आज इस अधिकार – भावना की चेतना बड़ी तेजी से परवान चढ़ रही है.
दुर्भाग्य से कई राजनैतिक दल भी इनको हवा देते हैं. अधिकार का यह पाठ पढ़ते हुए आम आदमी भी देश और सरकार से सब कुछ पाने की अर्थात असीमित लोभ की ही इच्छा पालता है. दूसरी ओर कर्तव्य की भावना और देश को अपनाने की और उसके लिए कुछ करने की ललक घटती जा रही है.
संभवत: इसी स्थिति का विकृत रूप आज समाज में भ्रष्टाचार, अत्याचार और व्यभिचार के विविध रूपों में तेजी से पनप रहा है. नाटकीय स्थिति तो तब उपस्थित होती है जब नागरिक के दायित्व का निर्वहन न करना या बाधित करना नागरिक के दायित्व का पालन कह कर किया जाता है. साथ ही उपद्रव के जरिये देश की हानि की जाती है.
यह परिस्थिति देश और समाज के हित में नहीं है. विवेकहीन होकर जीना किसी के भी हित में नहीं होगा. अत: आज देश में नागरिक के कर्तव्य यानी नागरिकता के व्यावहारिक पक्ष की व्यापक शिक्षा की जरूरत है क्योंकि नागरिकता के कर्तव्यों का पालन करके ही नागरिक, देश और उसके संविधान की रक्षा संभव है.
– प्रो. गिरीश्वर मिश्र, शिक्षाविद
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पहले प्रकाशित : 25 जनवरी, 2020, 11:59 पूर्वाह्न IST